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2... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
मन, वचन और काया इन तीनों दण्डों से मुक्त है 3. जो स्वयं सावद्य कार्य नहीं करता है, न दूसरों से करवाता है और न उसका अनुमोदन करता है 4. जो ऋद्धि, रस और साता का गर्व नहीं करता 5. जो मायावी नहीं होता, निदान नहीं करता और सम्यग्दर्शी होता है 6. जो विकथाओं से दूर रहता है 7. जो आहार, भय, मैथुन और परिग्रह - इन चार संज्ञाओं को जीत लेता है 8. जो कषायों पर विजय पा लेता है 9. जो अप्रमत्त रहता है और कर्म निर्जरा के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है, ऐसा साधक श्रमण कहलाता है। 3
सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार जो साधक शरीर आदि में आसक्ति नहीं रखता, किसी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं करता, हिंसा नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, मैथुन और परिग्रह के विकार से रहित है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि जितने भी कर्मादान और आत्म पतन के हेतु हैं, उन सबसे निवृत्त रहता है, इन्द्रियों का विजेता है, मोक्ष मार्ग का सफल यात्री है और शरीर के मोह-ममत्व से रहित है, वही श्रमण है | 4
दशवैकालिक टीका में श्रमण का अर्थ तपस्वी किया गया है। 5
आचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार सब जीवों के प्रति सम् अर्थात समान, अणति अर्थात वर्तन करने वाला समण कहलाता है। श्रमण सुमना होता है, वह कभी भी पापमय चिन्तन नहीं करता और स्वजन - परजन में तथा मान-अपमान में बुद्धि का उचित सन्तुलन रखता है। इस प्रकार श्रमण के विभिन्न अर्थ घटित होते हैं।
तुलना - यदि तुलनापरक दृष्टि से देखा जाए तो जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं में श्रमण जीवन का अर्थ लगभग समान है। जैन विचारणा के अनुसार श्रमण साधना के दो पक्ष हैं- आभ्यन्तर और बाह्य । राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठना बाह्य साधना है और समभाव की उपलब्धि करना आभ्यन्तर साधना है, अत: समत्व की साधना ही श्रमण जीवन का मूल है। बौद्ध परम्परा भी श्रमण जीवन का मूल आधार समभाव की साधना को मानती है । बुद्ध कहते हैं- जो व्रतहीन है, मिथ्याभाषी है, वह मुण्डित होने मात्र से श्रमण नहीं होता । इच्छा और लोभ से भरा हुआ मनुष्य भला क्या श्रमण बनेगा? जो छोटे-बड़े सभी पापों का शमन करता है वह पापों का शमनकर्ता होने से श्रमण कहा जाता है। 7 बुद्ध यह भी लिखते हैं कि श्रमण जीवन का सार सभी प्रकार के पापों को