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अध्याय-1
श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष
भारतीय संस्कृति 'श्रमण' और 'ब्राह्मण' इन दो धाराओं में प्रवाहित है। इनमें श्रमण संस्कृति आध्यात्मिक जीवन का और ब्राह्मण संस्कृति सुख-समृद्धि संपन्न भौतिक एवं सामाजिक जीवन का प्रतिनिधित्व करती हैं। जैन परम्परा 'श्रमण संस्कृति' की एक मुख्य धारा है। इस परम्परा में श्रमण का तात्पर्य पाप विरत साधक है। जैन परम्परा के अनुसार समस्त पापकारी प्रवृत्तियों से बचना श्रमण जीवन का बाह्य पक्ष है तथा समस्त रागद्वेषात्मक वृत्तियों से ऊपर उठना श्रमण का आभ्यन्तर पक्ष है। श्रमण संस्कृति का मूल आधार 'श्रमण' है। श्रमण शब्द का अर्थ विमर्श
श्रमण शब्द का प्राकृत रूप 'समण' है। 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं-1. श्रमण, 2. समन और 3. शमन। 1. 'श्रमण' शब्द 'श्रम' धातु से निर्मित है। इसका अर्थ है-परिश्रम या प्रयत्न
करना अर्थात जो साधक अपने आत्मविकास के लिए परिश्रम करता है,
वह श्रमण है। 2. 'समन' शब्द के मूल में सम् का अर्थ है समत्व भाव। जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने समान समझता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों
में समभाव रखता है, वह श्रमण है। 3. 'शमन' का अर्थ होता है अपनी वृत्तियों को शान्त रखना अथवा मन और
इन्द्रियों पर संयम रखना। स्पष्टार्थ है कि जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है, वह श्रमण है।
इन अर्थों से ज्ञात होता है कि श्रमण वह है जो समत्व भाव की साधना के द्वारा अपनी वृत्तियों को शमित करने का प्रयत्न करता है।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार जो समभाव की साधना करता है, वह श्रमण है। उत्तराध्ययन नियुक्ति के मतानुसार 1. जो राग-द्वेष को जीत लेता है 2. जो