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6...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन निशीथचूर्णि, विशेषावश्यकभाष्य आदि में इस विषयक विस्तृत चर्चा की गई है। इसके अनन्तर आचार्य हरिभद्रसूरि के पंचवस्तुक, पंचाशक, षोडशक आदि, आचार्य नेमिचन्द्रकृत प्रवचनसारोद्धार एवं आचार्य वर्धमानसूरि कृत आचारदिनकर आदि में यह विवरण उपलब्ध है।
संक्षेप में कहा जाए तो जिनेश्वर परमात्मा की भाँति विचरण करने वाले श्रमण जिनकल्पी और संघबद्ध साधना करने वाले श्रमण-श्रमणी वर्ग स्थविरकल्पी कहलाते हैं। वर्तमान में किसी अपेक्षा से दिगम्बर मुनि को जिनकल्पी और श्वेताम्बर साधु-साध्वियों को स्थविरकल्पी माना जाता है।
स्थानांगसूत्र में साधनात्मक योग्यता के आधार पर पाँच प्रकार के श्रमण बतलाये गये हैं, वे इस प्रकार हैं-17 1. पुलाक-दाने से रहित धान्य की भूसी को पलाक कहते हैं। वह नि:सार होती है। जो श्रमण चारित्रधर्म को व्यर्थ कर देता है और बहुत से
अतिचारों का सेवन करता है, वह पुलाक कहलाता है। 2. बकुश-बकुश का अर्थ है शबल अर्थात विचित्र वर्ण। जो श्रमण शरीर
के अवयवों को साफ-स्वच्छ रखता है और अकाल समय में वस्त्रादि धोता है, पात्र-दण्ड आदि को तैलादि लगाकर चमकाता है, वह बकुश
कहलाता है। इसमें चारित्र शुद्धि एवं दोष दोनों का सम्मिश्रण होता है। 3. कुशील-जो श्रमण भिक्षु जीवन के मूलगुणों का पालन करते हुए भी
उत्तरगुणों-समिति, भावना, प्रतिमा आदि का समुचित रूप से पालन नहीं
करता, वह कुशील कहलाता है। 4. निम्रन्थ-ग्रन्थ का अर्थ मोह है। जिस श्रमण की मोह और कषाय ग्रन्थियाँ
क्षीण हो चुकी हैं, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। 5. स्नातक-जो मुनि चार घाति कर्मों का क्षय करता है, वह स्नातक
कहलाता है। पूर्वोक्त पाँचों प्रकार पाँच-पाँच भेद वाले हैं। विस्तार भयेन इत्यलम्।
प्रवचनसारोद्धार में श्रमण के निम्नोक्त पाँच प्रकार बताये गये हैं-18 1. निम्रन्थ-जिन प्रवचन में उपदिष्ट पाँच महाव्रत, पाँच समिति आदि का
पालन करने वाले मुनि निम्रन्थ कहलाते हैं। 2. शाक्य-बुद्ध के अनुयायी साधु शाक्य कहलाते हैं। 3. तापस-जंगलों में रहने वाले जटाधारी संन्यासी तापस कहलाते हैं।