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________________ 384... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन तो किसी सामान्य साधु का मरण होता है अथवा ये रुग्णावस्था को प्राप्त होते हैं। अतः तीनों की सुरक्षा के लिए समान संस्तारक करना चाहिए | 16 टीकाकार के मतानुसार जिस क्षेत्र में तृण आदि की उपलब्धि न हो वहाँ वाचनाचार्य को निर्धारित भूमि पर राख चूर्ण अथवा केशर की अखंड धारा से ककार करना चाहिए और उसके नीचे तकार करके बंधन करना चाहिए। 17 तत्पश्चात मृतक को उस चिह्नित भूमि पर परिष्ठापित करना चाहिए। आचार्य जिनप्रभसूरि ने विपरीत 'तो' करने का निर्देश किया है। इसी के साथ मृतक मुनि की गुरु परम्परा का नामोच्चारण करते हुए उसका दिशाबंध करें। फिर 'तीन करण-तीन योग पूर्वक इस मुनि का परित्याग करता हूँ' ऐसा बोलते हुए परिष्ठापित करें, यह उल्लेख किया गया है। 18 प्राचीन सामाचारी में ‘क्त' आलेखन का निर्देश है तो किन्हीं परम्परा में 'तो' आलेखन का भी सूचन है। 19 यह श्मशान भूमि में शव परिष्ठापन की विधि है । 8. शीर्ष निर्गता द्वार - शव को उपाश्रय से बाहर निकालते एवं उसका परिष्ठापन करते समय उसका सिर गाँव की ओर रखें । इसका रहस्य यह है कि कदाचित शव उत्थित हो जाए, तब भी जिस दिशा की ओर पैर होंगे, वह उस दिशा की ओर ही दौड़ेगा, जाएगा, उपाश्रय की ओर नहीं जाएगा। दूसरे गांव की ओर पैर करने से अमंगल होता है यानी शव प्रेतादि से अधिष्ठित हो तो वह चलता हुआ गांव का अमंगल भी कर सकता है। इससे लोक गर्हा भी होती है अतः सिर गांव की ओर रखना चाहिए | 20 विधिमार्गप्रपा के अनुसार मृत श्रमण को वसति से बाहर ले जाने के पश्चात वसति में स्थित विधिज्ञाता मुनि मृत सम्बन्धित मल-मूत्र आदि अशुचि पदार्थ का परित्याग करें, वसति प्रमार्जन करें तथा जिस स्थान पर मृतक को रखा गया था वहाँ गोबर आदि का लेप कर उसकी शुद्धि करें, क्योंकि मृत विषयक समस्त प्रकार की अशुद्धि दूर करने के पश्चात ही मुनिवर्ग को अपनी आवश्यक क्रियाएं करना कल्पता है। 9. उपकरण द्वार— पूर्वनिर्दिष्ट विधि के अनुसार मृतक श्रमण को समान संस्तारक पर परिष्ठापित करने के पश्चात मृत श्रमण जिस कोटि का हो जैसे क्षुल्लक, जिनकल्पी, स्थविरकल्पी आदि के अनुसार उसके निकट मुखवस्त्रिका,
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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