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महापरिष्ठापनिका (अंतिम संस्कार) विधि सम्बन्धी नियम... 383
पीछे मुड़कर न देखते हुए एवं शव के आगे चलते हुए स्थंडिल की ओर गमन करें। यदि स्थण्डिल भूमि पर कोई गृहस्थ मृतदेह के अंतिम संस्कार हेतु उपस्थित हो तो वहन करने वाले मुनि शव को परिष्ठापित करके एवं अपने पांच अंगों की शुद्धि करके वसति में लौट आएं। 13
इस वर्णन से दो बातें सिद्ध होती हैं। एक यह कि नियुक्ति काल में साधुओं द्वारा शव परिष्ठापन और गृहस्थ द्वारा अग्नि संस्कार ऐसी दोनों ही परम्पराएं विद्यमान थीं। जैसा कि ऊपर कहा गया है, मुनि स्थंडिल भूमि तक शव को लेकर आएं। यदि वहाँ गृहस्थ को उपस्थित हुआ देख लें तो कलेवर को परिष्ठापित कर प्रतिनिवृत्त हो जाएँ । यद्यपि यहाँ दाहसंस्कार करने का स्पष्ट उल्लेख नहीं है किन्तु गृहस्थ की उपस्थिति इसी कार्य का संकेत करती है।
दूसरे, इस सैद्धान्तिक आचार का भी निर्णय होता है कि उस युग में मुनि लोग दिवंगत आत्मा को उपाश्रय में विसर्जित न कर पूर्वप्रेक्षित भूमि पर लाकर परिष्ठापित करते थे। उसके बाद गृहस्थ की उपस्थिति होती तो, वह अपने अनुसार अंतिम संस्कार करता था, अन्यथा निम्न विधि की जाती थी।
7. तृण द्वार - शव को वहन करते हुए स्थंडिल भूमि पर पहुँच जाएँ और वहाँ कोई गृहस्थ न हो, तो एक मुनि नैऋत्य कोण में भूमि प्रमार्जन करें। फिर गीतार्थ मुनि उस स्थान पर एक मुट्ठी कुश द्वारा अखण्डित धारा से समान संस्तारक बनाएं। उसके पश्चात मृत देह को संस्तारक के ऊपर परिष्ठापित कर, उसके समीप रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टक रखें।14
प्रयोजन- शव के निकट रजोहरण आदि इसलिए रखने चाहिए कि कदाचित वह देवगति को प्राप्त करे और अवधिज्ञान से स्वयं के पूर्वभव को देखने लगे तो उपकरणों के न रखने से वह मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है तथा इन उपकरणों के अभाव में राजा के पास जाकर कोई शिकायत कर सकता है। कि एक मृत शव पड़ा है- यह सुनकर राजा कुपित होकर आस-पास के दोतीन भागों में उपद्रव या विषम वातावरण पैदा कर सकता है। 15
यहाँ प्रश्न होता है कि शव परिष्ठापन हेतु समान संस्तारक ही क्यों किया जाए? इसके समाधान में निम्न कारण बतलाए गए हैं
शव के लिए किया गया तृण संस्तारक का ऊपरी भाग विषम हो तो आचार्य, मध्य भाग विषम हो तो वृषभ (गीतार्थ) और नीचे का भाग विषम हो