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स्थंडिल गमन सम्बन्धी विधि-नियम...361
काल है और अकाल संज्ञा मलोत्सर्ग का अनुचित काल है।
यह भी ज्ञातव्य है कि दिन की तीसरी पौरुषी (दिन का आधा भाग व्यतीत हो जाने के बाद) में भी भोजन के पश्चात मलोत्सर्ग करना चाहिए, क्योंकि यही मूल विधि है। इस कारण भोजन के बाद होने वाली मल-मूत्र उत्सर्ग की इच्छा उत्कृष्ट काल संज्ञा है और भोजन के पूर्व होने वाली तत्सम्बन्धी इच्छा अनुत्कृष्ट काल संज्ञा है।
दिन की तीसरी पौरुषी के समय मलोत्सर्ग करना उचित काल है। अकाल समय में संज्ञा (मलोत्सर्ग) करने से स्वाध्यायादि की हानि होती है क्योंकि दिन का पहला, दूसरा एवं चौथा प्रहर स्वाध्याय-ध्यान आदि के लिए नियुक्त किया गया है, जबकि दिन का तीसरा प्रहर आहार एवं शरीर सम्बन्धी कार्यों के लिए ही निर्धारित है। इसलिए शेष समय को अकाल संज्ञा कहा है।
अकालसंज्ञा विधि-यदि किसी मुनि को भोजन के पूर्व यानी दिन की पहली या दूसरी पौरुषी में मलोत्सर्ग के लिए जाना पड़े तो उसकी निम्न विधि है-33
सर्वप्रथम पात्र को झोली में रखें। फिर गवेषणापूर्वक एक व्यक्ति की आवश्यकता से कुछ अधिक पानी घरों से लेकर आयें। फिर जल बहरते समय किसी प्रकार का दोष लगा हो तो गुरु के समक्ष उसकी आलोचना करें। उसके बाद गुरु से अनुमति लेकर और अन्य साधुओं को कहकर या पूछकर स्थंडिल के लिए गमन करें।
विशेष-गीतार्थ परम्परानुसार आहारपात्र को झोली में रखकर एवं जलपात्र को झोली के बिना लाने-ले जाने का विधान है। ऊपर में पात्र को झोली में रखकर पानी लाने का जो निर्देश दिया गया है वह अपवाद रूप है। यह निर्देश स्वाध्यायकाल में मलोत्सर्ग करने वाले साधु के लिए दिया गया है। पंचवस्तुक टीका में इसका प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि यदि अकाल वेला में स्थंडिल जाने वाला साधु बिना झोली के पानी लाता है तो सामाचारी का भंग होता है, क्योंकि झोली रहित पात्र देखकर लोग समझ सकते हैं कि ये साधु स्थंडिल के लिए पानी ले रहे हैं, इससे छाछ की आँच वाला या अन्य पानी नहीं भी मिलता है। झोली युक्त पात्र में पानी आदि बहरने पर दूसरा लाभ यह होता है कि एक गाँव से दूसरे गाँव की ओर जाते हुए श्रावक को किसी साधु के दर्शन