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362... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
हो जाये तो उसके मन में यह विचार उठ सकता है कि मेरे पास निर्दोष आहार आदि है अतः सुपात्रदान देकर अवश्य लाभ लेना चाहिए और वह शुद्ध जल आदि दे भी सकता है। साथ ही किसी को इस तरह सन्देह नहीं होता कि ये मुनि स्थंडिल के लिए पानी ले रहे हैं।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने यह भी उल्लेख किया है कि जैन मुनि को स्थंडिल आदि के लिए गंध रहित, स्वच्छ छाछ की आँच आदि का पानी अथवा तीन उबाले आया हुआ गर्म पानी लेना चाहिए। इस सम्बन्ध में ये निर्देश भी दिये गये हैं कि
1. जिस दिशा में स्थंडिल भूमि की ओर जाना है, उस दिशा से पानी ग्रहण न करें, अन्यथा सामाचारी भंग होती है तथा ये साधुजन छाछ की आँच आदि मलिन जल से शुद्धि करते हैं, ऐसी निन्दा होती है ।
2. अकाल वेला में संज्ञा का निवारण करना हो तो अन्य साधुओं से पूछकर जल ग्रहण के लिए जायें, अन्यथा जिनाज्ञा की अवहेलना होती है । अन्य साधुओं से पूछे बिना जाने पर वह स्वयं की आवश्यकता जितना ही जल लायेगा, उस समय किसी अन्य साधु को शंका हो जाये और वह जलगृहीता साधु के साथ स्थंडिल चला जाये तो एक की शुद्धि हो सके उतने जल से दो की शुद्धि करने पर शासन की निन्दा होती है, क्योंकि अल्प पानी का उपयोग करते हुए देखकर लोग कह सकते हैं कि 'ये साधु गंदे हैं।' इस कारण अन्य साधुओं की आवश्यकता को जानकर पानी लाना चाहिए।
3. यदि दो साधु स्थंडिल भूमि में जाने वाले हों तो तीन की शुद्धि जितना पानी लेकर जायें। यदि अधिक साधु स्थंडिल के लिए जाने वाले हों तो अधिक जल ग्रहण करें।
4. जो मुनि अकाल वेला में पानी लेकर आये वह उपाश्रय के बाहर स्वयं के दोनों पैरों की प्रमार्जना करे। फिर स्थंडिल के लिए जाते समय प्रतिलेखित डंडे को हाथ में ग्रहण कर 'आवस्सहि' शब्द कहते हुए उपाश्रय से बाहर निकले, अन्यथा सामाचारी का भंग होता है। इस प्रकार अकाल वेला में संज्ञा करने वाले साधु को उक्त निर्देशों का पूरा ख्याल रखना चाहिए। 34
कालसंज्ञा विधि-शास्त्र निर्दिष्ट विधि के अनुसार (दिन के तीसरे प्रहर में) स्थंडिल हेतु गमन करने वाला मुनि सर्वप्रथम पात्र को धोयें, फिर संघाटक