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360...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन परिष्ठापित करने योग्य स्थान के अर्थ में हुआ है, जबकि वर्तमान में 'स्थंडिल' शब्द मल-मूत्रादि विसर्जित करने के अर्थ में रूढ़ है। यथार्थतः किसी भी प्रकार की अशुद्ध वस्तु का परिष्ठापन स्थंडिल भूमि में ही करना चाहिए।
अंतकृतदशासूत्र में 'स्थंडिल' शब्द गजसुकुमाल मुनि की साधना भूमि के सन्दर्भ में व्यवहत है। उन्होंने बारहवीं भिक्षु प्रतिमा की उत्कृष्ट साधना श्मशान भूमि में की थी।25
इसके अनन्तर उत्तराध्ययनसूत्र में स्थंडिल की दस भूमियों का निरूपण किया गया है।26 व्यापक अर्थों में स्थंडिल का वास्तविक स्वरूप इसी सूत्र में उपलब्ध होता है। इससे यह भी सुनिश्चित हो जाता है कि स्थंडिल गमन एक शास्त्रीय आचार है। __ जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का सवाल है वहाँ ओघनियुक्ति27, बृहत्कल्पभाष्य28 आदि में इसका विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। ओघनिर्यक्ति में स्थंडिल के प्रकार, स्थंडिल गमन विधि आदि का स्पष्ट वर्णन है। परवर्ती पंचवस्तुक29, प्रवचनसारोद्धार, यतिदिनचर्या 1 आदि में भी यह चर्चा मिलती है। इनमें पंचवस्तुक ग्रन्थ अपना विशिष्ट स्थान रखता है क्योंकि आचार्य हरिभद्रसूरि ने स्थंडिल के 1024 विकल्प, स्थंडिल के दोष, स्थंडिल गमन योग्य काल इत्यादि का विशद निरूपण किया है। इसमें स्थंडिल गमन एवं स्थंडिल भूमि से सम्बन्धित विधियों का भी सुन्दर विवेचन किया गया है। यतिदिनचर्या में स्थंडिल गमन हेतु उपाश्रय से बहिर्गमन करने, उपाश्रय में प्रवेश करने तथा मलोत्सर्ग सम्बन्धी दोषों की आलोचना करने की विधियों का सम्यक वर्णन है।
उपर्युक्त वर्णन से सिद्ध है कि मुनि को स्थंडिल (मलोत्सर्ग) हेत् निर्जीव एवं एकान्त भूमि में जाना चाहिए, जिससे अहिंसाव्रत का परिपोषण होता है। मलोत्सर्ग या अशुचि द्रव्यों का परिष्ठापन जीव-जन्तु रहित भूमि पर करना यही जिनाज्ञा है। स्थंडिल गमन (मलोत्सर्ग) का काल
जैन शास्त्रों में मल विसर्जन क्रिया को 'संज्ञा' शब्द से भी सम्बोधित किया गया है। संज्ञा दो प्रकार की बतायी है-1. काल संज्ञा और 2. अकाल संज्ञा।32
दिन की तीसरी पौरुषी में मल विसर्जन करना काल संज्ञा है और दिन के शेष समय में मलोत्सर्ग करना अकाल संज्ञा है। काल संज्ञा मलोत्सर्ग का उचित