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विहारचर्या सम्बन्धी विधि-नियम...323 की यात्रा, दक्षिण के नक्षत्रों में पश्चिम की यात्रा और पश्चिम के नक्षत्रों में दक्षिण की यात्रा करना मध्यम हैं। इसके विपरीत स्थिति में यात्रा करना अशुभ है। धनिष्ठा से लेकर सात-सात नक्षत्र क्रमश: उत्तर, पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम द्वार के हैं, अत: जो नक्षत्र जिस दिशा के हैं उन नक्षत्रों में उस-उस दिशा की ओर प्रस्थान करना शुभदायक है।
दिशा शूल- गुरुवार को दक्षिण दिशा में, शनिवार और सोमवार को पूर्व दिशा में, शुक्रवार और रविवार को पश्चिम दिशा में, बुधवार एवं मंगलवार को उत्तर दिशा में, मंगलवार को वायव्य कोण में, शनिवार और बुधवार को ईशान कोण में, शुक्रवार और रविवार को नैऋत्य कोण में एवं गुरुवार और सोमवार को आग्नेय कोण में प्रस्थान न करें। यदि दिशाशूल में प्रस्थान करना पड़े तो प्रत्येक वार में क्रमश: श्रीखण्ड (चन्दन), दही, घृत, तेल, पिष्ट, सर्पि और खल का उपभोग कर यात्रार्थ जाएं, क्योंकि ये वस्तुएँ अशुभत्व का छेदन करती हैं। ___ नक्षत्रशूल- आषाढ़ एवं श्रावण नक्षत्र के दिन पूर्व दिशा में, धनिष्ठा एवं विशाखा नक्षत्र के दिन दक्षिण दिशा में, पुष्य एवं मूला नक्षत्र के दिन पश्चिम दिशा में तथा हस्त नक्षत्र के दिन उत्तर दिशा में विहार न करें। ये नक्षत्र तत्संबंधी दिशाओं के समय के लिए शूल के समान कहे गये हैं।
योगिनी- पूर्व दिशा से प्रारंभ करके आठों दिशाओं में दो-दो तिथियाँ योगिनी संज्ञिका होती हैं। जैसे पूर्व दिशा में प्रयाण करते समय प्रतिपदा एवं नवमी योगिनी संज्ञिका तिथियाँ हैं। प्रस्थान के समय दिशानुसार योगिनी तिथियों का वर्जन करें। ___ काल राहु- विहार के समय राहु का विचार करना भी आवश्यक है। जैन ज्योतिष के अभिमतानुसार सूर्योदय से लेकर रात्रि पर्यन्त पूर्वादिक दिशाओं में भ्रमण करता हुआ राहु यात्रा के समय सामने या दाहिनी ओर आता हो, तो उस दिन का त्याग करें। सामान्यतया यात्रा के समय राहु दाहिनी ओर तथा पीछे की तरफ, योगिनी बायीं ओर तथा पीछे की तरफ एवं चन्द्रमा सम्मुख होना चाहिए।
ज्ञातव्य है कि चन्द्रमा मेष आदि बारह राशियों में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर के अनुक्रम में विचरण करता है। यात्रा के समय चंद्रमा यदि सम्मुख हो, तो श्रेष्ठ फलदायी होता है।