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________________ 324... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन स्वर- दायां सूर्य स्वर कहलाता है और बायां चन्द्र स्वर कहलाता है। चन्द्रस्वर चल रहा हो, तब प्रस्थान करना चाहिए। सूर्य स्वर में कभी भी यात्रार्थ नहीं जाना चाहिए। मास— आचारदिनकर के अनुसार वर्षा और शरद ऋतु को छोड़कर शेष चार ऋतुएं विहार हेतु उत्तम हैं। उनमें भी आकाश मेघरहित हो, सुभिक्षकाल हो, राज्य में शान्ति हो, मार्ग निष्कंटक हो, उस समय विहार करना सबसे श्रेष्ठ है। विहार की आगमिक विधि सामान्यतया जैन मुनि को अप्रतिबद्ध ( किसी प्रकार की मनोकामना से रहित) होकर विहार करना चाहिए, यद्यपि आगमिक व्याख्या साहित्य में विहार सम्बन्धी कुछ निर्देश प्राप्त होते हैं। बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख आता है कि यदि आचार्य का विहार हो तो प्रशस्त तिथि, प्रशस्त करण और आचार्य के अनुकूल नक्षत्र इतनी बातें अवश्य देखनी चाहिए। जिस दिन शुभ मुहूर्त्त आता हो उस दिन सबसे पहले गीतार्थ साधु आचार्य की उत्कृष्ट उपधि को लेकर शकुन देखता हुआ निकले। तत्पश्चात आचार्य प्रस्थान करें | 34 आचार्य और उपाध्याय के अतिरिक्त अन्य पदधारी साधु गीतार्थ भी हों, तब भी उन्हें आचार्य के साथ ही विहार करना कल्पता है। किन्तु व्यवहारभाष्य में इसकी आपवादिक विधि दी गई हैं। इसमें निर्देश है कि यदि निम्न कारण हो तो अगीतार्थ दो साधु भी विहार कर सकते हैं - 35 1. अशिव - क्षुद्रदेवताकृत उपद्रव हो, आहारादि की प्राप्ति नहीं हो रही हो या राजा क्रोधित हो । 2. संदेशन - आचार्य द्वारा भेजा गया हो । 3. ज्ञान - दर्शन वर्धक शास्त्राभ्यास हेतु जाना हो । 4. गुरु की अनुज्ञा से किसी साध्वी को दूसरे क्षेत्र में ले जाना हो । 5. किसी दीक्षार्थी को स्थिर करना हो तथा किसी साधु का ज्ञातिवर्ग वन्दापनीय हो और उसकी वन्दना के निमित्त जाना हो, तो दो साधु विहार कर सकते हैं। यदि कारणवश दो साधु विहार करते हैं तो वे दोनों भिक्षा आदि के लिए एक साथ जायें, वसति से निष्क्रमण या पुनः प्रवेश भी एक साथ करें, शय्यातर से अनुमति भी एक साथ लें।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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