________________
322... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
है, बारह प्रकार की तपाराधना से भावित है, बारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञाता है, उस काल-क्षेत्र के अनुकूल आगम सूत्रों का विज्ञाता है, प्रायश्चित्त आदि ग्रन्थों का भी सम्यक वेत्ता है, दैहिक एवं आत्मिक बल से संयुक्त है, धैर्य आदि गुणों में विशिष्ट है - ऐसे मुनि को एकल विहार करने की जिनाज्ञा है। अन्य सामान्य मुनियों के लिए और विशेषतः इस पंचम काल में एकाकी विहार करने का विधान नहीं है | 32
इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में सामान्य साधु को एकाकी विहार का निषेध है, किन्तु जिनकल्पी एवं तादृश गुणों से युक्त तथा उपर्युक्त मानदण्ड से सम्पन्न भिक्षु एकाकी विहार कर सकता है। विहार हेतु शुभ मुहूर्त्तादि का विचार
गणिविद्या एवं आचारदिनकर आदि के अनुसार विहार के लिए प्रशस्तअप्रशस्त नक्षत्रादि इस प्रकार जानने चाहिए - 33
वार- विहार के लिए सोमवार, बुधवार, गुरुवार एवं शुक्रवार उत्तम हैं। तिथि - दोनों पक्ष की तृतीया, पंचमी, सप्तमी, एकादशी एवं त्रयोदशी प्रशस्त कही गई हैं तथा चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, द्वादशी, चतुर्दशी, अमावस्या एवं पूर्णिमा- ये तिथियां निषिद्ध बतलाई गई हैं।
नक्षत्र - अश्विनी, पुष्य, रेवती, मृगशीर्ष, मूला, पुनर्वसु, हस्त, ज्येष्ठा, अनुराधा- ये नौ नक्षत्र यात्रा हेतु उत्तम हैं। इन नक्षत्रों में मासकल्प आदि के लिए एक स्थान पर रहना भी योग्य है।
विशाखा, तीनों उत्तरा, आर्द्रा, भरणी, मघा, आश्लेषा एवं कृतिका नक्षत्र यात्रा हेतु अधम माने गए हैं अर्थात इन नक्षत्रों में विहार नहीं करना चाहिए। शेष नक्षत्र विहार के लिए मध्यम हैं।
समय - जैनाचार्यों के मत से ध्रुव एवं मिश्र नक्षत्रों के होने पर पूर्वाह्न में, क्रूर नक्षत्रों के होने पर पूर्व रात्रि में, तीक्ष्ण नक्षत्रों के होने पर मध्यरात्रि में एवं चर नक्षत्रों के होने पर रात्रि के अन्तिम भाग में यात्रा न करें। दिन शुभ होने पर दिवस की यात्रा और नक्षत्र शुभ होने पर रात्रि की यात्रा शुभ होती है।
दिशा - ज्योतिष शास्त्र में पूर्व आदि चार दिशाओं के भिन्न-भिन्न नक्षत्र हैं, उन्हें दिग्द्वार नक्षत्र कहते हैं। निर्धारित दिशा नक्षत्रों में विहार करना शुभ फलदायी है। दिग्द्वार विषयक उत्तर के नक्षत्रों में पूर्व यात्रा, पूर्व के नक्षत्रों में उत्तर