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304... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
मिलता हो और 5. जहाँ बहुत से अन्य तीर्थिक साधु-संन्यासी पहले से रुके हुए हों और अन्य भी आने वाले हों, जिससे सभी मार्गों पर जनता की अत्यन्त भीड़ हो और साधु-साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कार्यों के लिए अपने स्थान से सुखपूर्वक निकलना और प्रवेश करना भी कठिन हो रहा हो, ऐसे गांव - नगर आदि में वर्षाकाल प्रारम्भ हो जाने पर भी वर्षावास न करें। 43 इसके विपरीत जहाँ स्वाध्याय योग्य पर्याप्त भूमि हो, मल-मूत्र विसर्जन हेतु निर्जीव स्थल हो, पीठ - फलक - शय्या संस्तारक सुलभ हो, निर्दोष- एषणीय आहार की सुलभता हो, अन्य तीर्थिक साधु-संन्यासियों का जमघट न हो और भिक्षाचर्या, स्वाध्याय आदि क्रियाएँ निर्विघ्न हो सकें, ऐसे नगर में ही वर्षावास करें।
कल्पसूत्र कल्पलता की मान्यतानुसार वर्षाकल्पिक क्षेत्र निम्न गुणों से युक्त होना चाहिए-जहाँ अधिक कीचड़ न हो, जीवों की बहुतायत रूप से उत्पत्ति न हो, शौच -: -स्थल निर्दोष हो, वसति शान्तिप्रद एवं स्वाध्याय योग्य हो, गोरस की अधिकता हो, जनसमूह भद्र हो, राजा धार्मिक प्रवृत्ति में लगा हुआ हो, भिक्षा सुलभ हो, श्रमण-ब्राह्मण का अपमान न होता हो आदि । 44 आधुनिक परिप्रेक्ष्य में वर्षावास की प्रासंगिकता
वर्षावास की वैयक्तिक एवं सामाजिक उपादेयता पर चिन्तन करें तो इसके अनेक लाभ परिलक्षित होते हैं। वर्षावास में एक स्थान पर रहने से मुनि स्वाध्याय सेवा आदि में विशेष समय दे सकता है। एक स्थान पर रहकर बड़ी तपस्या आदि करने में आसानी होती है। संघ समाज में विशेष धर्म प्रभावना तथा मुनि प्रवचन आदि कला में निपुण बनता है और उसकी योग्यता का लाभ अन्य समाज को भी मिलता है, जबकि वर्षाऋतु के कारण मार्ग में बाधाएँ उपस्थित होने की तथा साधु के स्वास्थ्य एवं संयम हानि की संभावनाएँ भी रहती हैं।
यदि प्रबन्धन की दृष्टि से वर्षावास की उपयोगिता के विषय में चिन्तन किया जाए तो यह ज्ञान प्रबन्धन, समाज प्रबन्धन, कषाय प्रबन्धन आदि के क्षेत्र में बहुपयोगी है। वर्षावास के दरम्यान मुनि स्व-ज्ञान उदारतापूर्वक समाज को देता है तथा स्वयं विद्वद् मुनियों एवं अनुभवी साधकों से ज्ञानार्जन करता है। इस प्रकार ज्ञान प्रबन्धन होता है।
वर्षावास के अन्तर्गत मुनि समाज में संस्कारों का बीजारोपण कर उन्हें