SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्षावास सम्बन्धी विधि-नियम...305 आध्यात्मिक मार्ग प्रदान करते हैं। समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने में भी इनका विशेष योगदान हो सकता है। इस प्रकार समाज प्रबन्धन को भी वर्षावास के द्वारा साधा जा सकता है। तप-जप-स्वाध्याय आदि के द्वारा चित्त-नियन्त्रण के साथ इन्द्रिय एवं कषाय नियन्त्रण भी किया जा सकता है। इस प्रकार कषाय प्रबन्धन भी साधा जा सकता है। इसी तरह प्रबन्धन में भी इसकी भूमिका स्वयं सिद्ध है। क्योंकि इस दौरान साधक अपनी साधना में विशेष रूप से अग्रसर होते हैं और उसके बल से जीवन में उत्कर्ष को प्राप्त करते हैं। . वर्तमान जगत की दैनिक समस्याओं के सन्दर्भ में यदि वर्षावास की प्रासंगिकता देखी जाए तो सर्वप्रथम वर्तमान युवा पीढ़ी में संस्कारारोपण करते हए मुनिगण भौतिक प्रभाव को कम करते हैं। विशेष तप-जप की साधना के द्वारा शरीरं एवं आत्मा को निर्मल किया जा सकता है। जीवोत्पत्ति अधिक होने से प्राणभय आदि बना रहता है, अत: अधिक गमनागमन नहीं करने से प्राण नाश का भय नहीं रहता। वर्षाकाल में नमी युक्त वातावरण के कारण रोगोत्पत्ति की संभावना अधिक रहती है ऐसी स्थिति में कम से कम प्रवृत्ति एवं तपस्या आदि करने से शरीर स्वस्थ रहता है। वर्तमान में बढ़ती पाश्चात्य संस्कृति एवं टी.वी. के प्रभाव को कम करने के लिए मुनियों का सान्निध्य समाज के लिए अत्यावश्यक है। अधिकतम व्यापारों में चातुर्मास का समय ऑफ सीजन अर्थात मंदी का समय होता है तथा महिलाओं के भी विशिष्ट कार्य इस समय नहीं होते हैं। इससे बिना काम के व्यस्त जीवन की समस्या का भी कुछ हद तक निवारण होता है। वर्षायोग धारण-समापन विधि .. दिगम्बर परम्परानुसार वर्षायोग धारण (वर्षावास स्थापना) विधि इस प्रकार है-45 सर्वप्रथम विधिपूर्वक सामायिक दण्डक, कायोत्सर्ग और थोस्सामि बोलकर सिद्धभक्ति पढ़ते हैं। फिर पुनः सविधि सामायिकदण्डक, कायोत्सर्ग और थोस्सामि करके योगिभक्ति पढ़ते हैं। फिर पूर्व दिशा की ओर मुख करके ऋषभजिनस्तोत्र बोलकर पूर्ववत सामायिक दण्डक, कायोत्सर्ग एवं थोस्सामि कहकर लघुचैत्यभक्ति पढ़ते हैं। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में संभवनाथ और अभिनन्दनस्वामी स्तोत्र, पश्चिम दिशा में सुमतिनाथ और पद्मप्रभु स्तोत्र, उत्तर
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy