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वर्षावास सम्बन्धी विधि - नियम... 303
स्थानांगसूत्र की दृष्टि से वर्षाकाल के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन भेद होते हैं। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के दिन से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक 70 दिन एक स्थान पर रहना जघन्य वर्षावास है। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक चार महीनों तक एक स्थान पर रहना मध्यम वर्षावास है तथा आषाढ़ से लेकर मिगसर तक छह महीनों तक एक जगह पर रहना उत्कृष्ट वर्षावास है। उत्कृष्ट वर्षावास के छह मास काल का अभिप्राय यह है कि यदि आषाढ़ के प्रारम्भ से ही पानी बरसने लगे और मिगसर मास तक बरसता रहे तो छह मास का उत्कृष्ट वर्षावास होता है। 40
स्थानांग टीका में कहा गया है कि प्रथम प्रावृट् (आषाढ़) में और वर्षाकल्पिक सामाचारी की स्थापना करने पर विहार नहीं करना चाहिए, क्योंकि पर्युषणाकल्पपूर्वक निवास करने के बाद भाद्र शुक्ल पंचमी से कार्तिक तक साधारणतः विहार नहीं किया जा सकता, किन्तु पूर्ववर्ती पचास दिनों में उपयुक्त सामग्री के अभाव में विहार कर सकते हैं। 41
यह
बृहत्कल्पभाष्य में वर्षावास समाप्ति के पश्चात विहार के सम्बन्ध दर्शाया गया है कि जब ईख बाड़ों के बाहर निकलने लगें, तुम्बियों में छोटे-छोटे तुम्बक लग जायें, बैल शक्तिशाली दिखने लगें, गाँवों का कीचड़ सूखने लगे, मार्गों का पानी अल्प हो जाए, जमीन की मिट्टि कड़ी हो जाये और जब पथिक परदेश गमन करने लगें तब श्रमण को भी वर्षावास की समाप्ति और अपने विहार करने का समय समझ लेना चाहिए | 42
वर्षावास हेतु स्थान कैसा हो?
अहिंसक मुनि का जीवन अनेकविध आचार-संहिताओं से युक्त होता है। वह नियमित चर्याओं का निर्बाध रूप से पालन कर सके, इसलिए उपाश्रय निर्दोष होना चाहिए।
आचारचूला में चातुर्मास योग्य स्थान का निर्देश करते हुए कहा गया है कि- 1. जिस ग्राम, नगर, खेड़, कर्बट, मडंब, पट्टण, द्रोणमुख, आकर (खान), निगम, आश्रम, सन्निवेश और राजधानी में स्वाध्याय के लिए विस्तृत भूमि न हो, 2. ग्राम आदि के बाह्य या अन्तीय भाग में मल-मूत्र त्यागने के लिए योग्य भूमि न हो, 3. जहाँ पीठ (चौकी), फलक (पटिया) शय्या और संस्तारक की प्राप्ति सुलभ न हो, 4. जहाँ प्रासुक, निर्दोष और एषणीय आहार- पानी न