________________
302...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
उपधि रक्षा सम्बन्धी- वर्षावास में रहने वाले साध-साध्वियों को वस्त्र, पात्र, कंबली आदि किसी भी उपधि को धूप देना हो, आहार-स्थंडिल आदि किसी भी कारण से उपाश्रय के बाहर जाना हो, एकान्त स्थल पर कायोत्सर्ग आदि करना हो तो सहवर्ती मुनियों को सूचित करके जायें यह आगमिक नियम है।34
स्थंडिल भूमि सम्बन्धी- वर्षावास स्थित साधु-साध्वियों को मल-मूत्र का विसर्जन करने हेतु तीन भूमियों की प्रतिलेखना करनी चाहिए, किन्तु शेष आठ मास में तीन भूमियों की प्रतिलेखना करना आवश्यक नहीं है। इसके पीछे यह कारण है कि वर्षाऋतु में प्राय: त्रस प्राणी, हरी घास, बीज, फूलण और हरे अंकुर पैदा हो जाते हैं, अत: तीन भूमियों की नितान्त आवश्यकता रहती है।35
चिकित्सा सम्बन्धी- वर्षावास में स्थित साधु-साध्वियों को किसी प्रकार की चिकित्सा करवानी हो तो आचार्य आदि की अनुमति प्राप्त करके ही करवाएं। यदि अनुमति प्राप्त न हो तो नहीं करवाएं, क्योंकि आचार्य आदि आने वाली विघ्न-बाधाओं को स्वानुभव से जान लेते हैं।36 वर्षावास का समय __सामान्यतया आषाढ़ से कार्तिक तक का समय वर्षा और वर्षा से उत्पन्न जीव-जीवाणुओं एवं अनेक प्रकार के तृण, घास का समय रहता है। इसीलिए चातुर्मास की अवधि आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की पूर्व रात्रि से आरम्भ होकर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पश्चिम रात्रि तक मानी जाती है।
अपराजितसूरि के उल्लेखानुसार वर्षावास के समय एक सौ बीस दिनों तक एक स्थान पर रहना उत्सर्ग मार्ग है। विशेष कारण होने पर अधिक और कम दिन भी ठहर सकते हैं।37 प्राचीन परम्परानुसार आषाढ़ शुक्ला दशमी से चातुर्मास की आराधना करने वाले कार्तिक की पूर्णमासी के पश्चात तीस दिन तक आगे भी सकारण एक स्थान पर ठहर सकते हैं यह दिगम्बराचार्य का अभिमत है। अधिक ठहरने के पीछे वर्षा की अधिकता, शास्त्राभ्यास, दैहिक अस्वस्थता अथवा आचार्य आदि का वैयावृत्य- प्रमुख कारण होने चाहिए।38 ___आचारांगसूत्र के मन्तव्यानुसार वर्षाकाल के चार माह बीत जाने पर विहार कर देना चाहिए, यह श्रमण का उत्सर्ग मार्ग है। यदि कार्तिक महीने में पुन: वर्षा हो जाए और मार्ग आवागमन के योग्य न रहे तो चातुर्मास के पश्चात वहाँ पन्द्रह दिन और रह सकते हैं।39