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284... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
शय्यातर के स्वामित्व में नहीं हो जाता, तब तक ग्रहण किया जा सकता है तथा शय्यातर की निहृतिका का आहार दूसरे के ग्रहण करने के बाद उससे लिया जा सकता है।
शय्यातर की निहृतिका बाँटने वाले से आहार नहीं लिया जा सकता है, किन्तु शय्यातर की आहृतिका बांटने वाले से उसका आहार लिया जा सकता है। 14
शय्यातर के अंशयुक्त आहार ग्रहण के विधि - निषेध
शय्यातर सहित अनेक व्यक्तियों की खाद्यसामग्री एकत्रित हो, उनमें से सागारिक का अंश जब तक अविभाजित है, अव्यवच्छिन्न है, अनिर्णीत हैं और अनिष्कासित है तब तक उसमें से साधु को आहार लेना नहीं कल्पता है, किन्तु जब सागारिक का अंश विभाजित, व्यवच्छिन्न, निर्धारित और निष्कासित कर दिया जाये, तब उस सम्मिलित भोज्य सामग्री में से दिया गया भक्त-पिण्ड साधु के लिए ग्राह्य हो सकता है। 15
शय्यातर के पूज्यजनों को दिये गये आहार ग्रहण का विधि - निषेध
शय्यातरपिंड के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्मता से चिन्तन करते हुए यह भी कहा गया है कि जो भक्त - पान शय्यातर के नाना, मामा, बहनोई, जमाई, विद्यागुरु, कलाचार्य या मेहमान आदि पूज्यजनों के निमित्त बनाया गया हो अथवा वह शय्यातर के घर से लाकर जहाँ पूज्यजन ठहरे हों, वहाँ उन्हें भोजनार्थ समर्पण किया गया हो, अथवा शय्यातर के पात्रों ( बर्तनों) में पकाया गया हो, उसके पात्र से निकाला गया हो और उन्हें खिलाने के पश्चात अवशिष्ट भोजन पुनः लाकर सुपुर्द करना ऐसा कहकर सेवक या कुटुम्बीजन द्वारा भेजा गया हो, तो ऐसा आहार भी साधु-साध्वी को लेना नहीं कल्पता है, क्योंकि शेष आहार पुनः शय्यातर को लौटाने का होने से उसमें शय्यातर के स्वामित्व का सम्बन्ध रहता है। यदि वह आहार शय्यातर को पुनः नहीं लौटाना हो तो ग्रहण किया जा सकता है। 16
निष्कर्ष यह है कि जो भोजन - पानी शय्यातर के आहार से मिश्रित हो, शय्यातर के स्वामित्व में हो, शय्यातर के हिस्से का हो और शय्यातर से सम्बन्धित हो वह मुनि को ग्रहण करना नहीं कल्पता है। इसके विपरीत जो भक्त-पान शय्यातर का होने पर भी उसके स्वामित्व से रहित हो, वह मुनि के लिए ग्राह्य हो सकता है।