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________________ शय्यातर सम्बन्धी विधि-नियम...285 शय्यातरपिंड निषेध के कारण जैन मुनि शास्त्र मर्यादा के अनुसार किसी शय्यातर के यहाँ का आहार नहीं ले सकते हैं। इस निषेध के पीछे निम्न कारण हैं-17 1. शय्यातरपिंड ग्रहण करने से तीर्थंकर भगवान की आज्ञा भंग का दोष लगता है, क्योंकि तीर्थंकरों ने शय्यातरपिंड का निषेध किया है। 2. लौकिक व्यवहार में यह रूढ़ है कि जिसके घर पर अतिथि ठहरते हैं वे प्राय: उसी के यहाँ का भोजन करते हैं, साधु भी यदि ऐसा करे तो उद्गम आदि दोषों की संभावना बढ़ जाती है। दूसरा कारण यह है कि जैन साधु किसी एक घर का मेहमान नहीं होता। अन्य तीर्थकों में ऐसी परिपाटी है कि वे जहाँ ठहरते हैं वहीं उनके भोजन की व्यवस्था भी करनी पड़ती है। जबकि मुनि को किसी गृहस्थ परिवार का आश्रित या मेहमान नहीं बनना चाहिए, अतएव साधुओं के लिए यह मर्यादा बांधी गई है कि वे स्थान दाता के यहाँ से आहारादि न लें। 3. शय्यातरपिंड ग्रहण करने से शय्यातर की दान भावना में कमी आ सकती है। 4. शय्यातरपिंड का यथावत पालन न करने से स्थान की दुर्लभता भी बढ़ सकती है, क्योंकि स्थान मिलना वैसे भी दुर्लभ होता है फिर आहारादि न देने की भावना वाले एवं उससे कतराने वाले लोग स्थान देना भी छोड़ देते हैं। 5. शय्यातरपिंड ग्रहण करने से अशुद्ध आहार एवं पौष्टिक आहार की संभावनाएं भी अधिक बढ़ जाती हैं जैसे शय्यातर के साथ अति परिचय हो जाये तो वह साधु की अन्तरंग भावना को अच्छी तरह से जानता हुआ भक्ति वश मुनि के मनोनुकूल आहारादि बनाकर दे सकता है। ऐसा आहार आधाकर्मी आदि दोष से युक्त होता है। मुनियों को निरन्तर स्वाध्याय आदि करते देखकर शय्यातर उनका भक्त बनकर रसयुक्त आहार दे सकता है। इससे मुनियों की रसासक्ति बढ़ने का भय रहता है। 6. शय्यातर के घर का निरन्तर रसपूर्ण आहार करने पर मुनि का शरीर स्थूल बन सकता है और सुन्दर वस्त्रादि की प्राप्ति से परिग्रह वृद्धि भी हो सकती है। इस तरह शय्यातरपिंड ग्रहण का निषेध अनेक दृष्टियों से किया गया है।18
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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