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शय्यातर सम्बन्धी विधि-नियम... 279 होता है। इस तरह वह वृक्ष जिस यक्ष के द्वारा अधिष्ठित होता है, वही यक्ष वहाँ स्थित साधुओं का शय्यातर होता है। उसके लिए अर्पित बलिकूर आदि नैवेद्य शय्यातर पिण्ड कहलाता है । उसे ग्रहण करना साधु के लिए वर्ज्य है अथवा यक्ष वृक्ष के स्वामी को स्वप्न में अवतीर्ण होकर कहे- 'मेरे उद्देश्य से तुम बार-बार भोज करोगे तो मैं तुम्हें कष्ट नहीं दूँगा' उस भोज का भोजन शय्यातरपिंड है अत: वह भी अग्राह्य होता है ।
इस तरह हमें ज्ञात होता है कि पथिक और यक्ष भी शय्यातर बनते हैं एवं इनका पिंड भी शय्यातरपिंड कहलाता है।
शय्यातर पिंड के प्रकार
पिंड पदार्थ— शय्यातरपिंड दो, चार, छह, आठ और बारह प्रकार का होता है।
दो प्रकार - 1. आहार 2. उपधि ।
• चार प्रकार- 1. अशन 2. पान 3 औधिक उपकरण 4. औपग्रहिक
उपकरण।
• छह प्रकार- 1. अशन 2. पान 3. खादिम 4. स्वादिम 5 औधिक उपकरण 6. औपग्राहिक उपकरण ।
• आठ प्रकार- 1. अशन 2. पान 3. वस्त्र 4. पात्र 5. सुई 6. कैंची 7. नखछेदनी 8. कर्ण शोधनी ।
• बारह प्रकार- 1. अशन 2. पान 3. खादिम 4. स्वादिम 5. वस्त्र 6. पात्र 7. कम्बल 8. पादप्रोञ्छन 9. सुई 10. कैंची 11. नखछेदनी और 12. कर्णशोधनी।
जो गृहस्थ शय्यातर कहलाता है उसके यहाँ से उपर्युक्त वस्तुएँ उसके शय्यातर रहने तक ग्रहण नहीं कर सकते। इन वस्तुओं की जरूरत होने पर अशय्यातर के यहाँ से ही ग्रहण करने का विधान है। जो मुनि निष्प्रयोजन शय्यातर पिंड लेता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। निशीथसूत्र के दूसरे उद्देशक में इस विषयक प्रायश्चित्त विधान की सम्यक चर्चा की गई है।
अपिण्ड वस्तुएँ - 1. तृण 2. डगल ( पाषाण खण्ड) 3. राख 4. कफ आदि थूकने का पात्र 5. शय्या (स्थान) 6. संथारा 7. पीठ फलक (पीठ के पीछे रखने का साधन) 8. लेप (पात्र आदि पर लगाने का रंग ) तथा 9. शय्यातर के घर का कोई भी सदस्य दीक्षित होना चाहे तो उन्हें ग्रहण कर सकते हैं। 10