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278...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
• लाटाचार्य के मतानुसार साधु मूल बस्ती (जहाँ आचार्य विराजित हों वहाँ) पर रहें या अन्यत्र रहें, किन्तु आचार्य-गुरु आदि जिसकी वसति में रुके हुये हों वही गृह मालिक सभी मुनियों के लिए शय्यातर माना जाता है, अन्य नहीं।
• जिस वसति में रात्रि विश्राम किया है और प्रभात काल का प्रतिक्रमण किया है उसके पश्चात अन्य वसति में जाने पर भी वही शय्यातर कहलाता है, जिसके अवग्रह में रात्रि विश्राम एवं प्रतिक्रमण किया हो। ।
• मुनि जिस वसति दाता के यहाँ एक अहोरात्रि से अधिक रूक जाएं तो उसके पश्चात उस गृहदाता का भोजन आदि लेना उन्हें नहीं कल्पता है। फिर तो वहाँ से विहार करने के चौबीस घंटे बाद ही उस गृह स्वामी का आहार ले सकते हैं। जैसे आज दस बजे मनियों ने किसी श्रावक की वसति का त्याग किया और अन्यत्र चले गये तो दूसरे दिन दस बजे बाद ही उस मालिक के घर का आहार-पानी मुनियों को लेना कल्पता है।' शय्यातर के अन्य विकल्प
जैन दर्शन सूक्ष्म दृष्टिवादी दर्शन है। इस दर्शन में प्रत्येक पहलू पर गहराई से विचार किया गया है। इसी कारण केवल मनुष्य को ही नहीं अपितु यक्षादि देवता को भी शय्यातर का अधिकारी माना गया है। इस नियम से मार्ग के बीच या वृक्ष की छाया में बैठकर विश्राम करना हो तो उस स्थान के मालिक या वृक्ष अधिष्ठित देव की अनुमति लेना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में यह जानना आवश्यक है कि यदि विहार करते समय किसी वृक्ष की छाया में विश्राम करना हो और वहाँ पहले से ही कुछ पथिक विश्रामार्थ बैठे हुए हों तो उन्हें पूछकर वहाँ ठहर सकते हैं। यदि रात्रि में वहाँ रहना हो तो एक या अनेक, जितने पथिकों से वह स्थान या वृक्ष घिरा हुआ है उन सबको शय्यातर स्थापित करें। यदि यह संभव न हो तो किसी एक को शय्यातर के रूप में स्वीकार करें और उसकी अनुमति लेकर वहाँ रुकें। इस तरह पथिक भी शय्यातर बनता है। ___जिस वृक्ष के नीचे कोई भी पथिक बैठा हुआ नहीं है, यदि उस वृक्ष की छाया में ठहरने का प्रसंग बने तो उस वृक्ष के मालिक व्यंतर देव से अनुज्ञा प्राप्त करें। कोई स्वामी वहाँ न हो तो 'अणुजाणह जस्सावग्गहो' अर्थात यह जिसका स्थान है वह हमें आज्ञा दें- ऐसा कहकर अनुज्ञा लें। यह अनुज्ञा एक मुनि द्वारा प्राप्त कर ली जाए तो अन्य मुनियों के लिए आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक नहीं