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शय्यातर सम्बन्धी विधि- नियम... 277
• जब शय्या (आवास स्थल) की अनुज्ञा दे दी जाती है। • जब मुनि शय्यातर के अवग्रह में प्रविष्ट हो जाते हैं • जब मुनि गृहस्वामी के आंगन में प्रविष्ट हो जाते हैं • तृण आदि उपयोगी वस्तु की आज्ञा प्राप्त कर लेते हैं • जब मुनि वसति में प्रविष्ट हो जाते हैं • जब उपकरण आदि वसति दाता के घर में स्थापित कर दिये जाते हैं • जब वहाँ स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया जाता है • जब गुरु की आज्ञा से मुनि भिक्षा के लिए चले जाते हैं • जब मुनि वहाँ आहार करना प्रारंभ कर देते हैं • जब पात्र आदि वहाँ रख दिये जाते है • जब वहाँ दैवसिक प्रतिक्रमण कर लिया जाता है • जब वहाँ रहते हुए रात्रि का प्रथम प्रहर बीत जाता है • इसी तरह रात्रि का दूसरा, तीसरा या चौथा प्रहर बीत जाता है।
संक्षेप में कहें तो वसति दाता द्वारा अनुज्ञापित स्थान या उपाश्रय में प्रवेश करने के पश्चात वहाँ आहार कर लिया जाए एवं उपकरण आदि रख दिए जाएं, उसके बाद ही वसतिदाता शय्यातर कहलाता है। उसके पूर्व तक उसका आहारादि ग्रहण किया जा सकता है | 4
इन सब स्थितियों के उपरान्त भी यदि मुनि वसति दाता द्वारा अनुमत क्षेत्र में प्रविष्ट होने के बाद किसी बाधा के उपस्थित होने पर दूसरी वसति में चले जाएँ तो वह वसति दाता शय्यातर नहीं रह जाता है।
• गीतार्थ सामाचारी यह है कि योग्य वसति में रात्रि भर रहने के उपरान्त भी शय्यातर की भजना है अर्थात उस स्थान का स्वामी भी शय्यातर हो सकता है और अन्य स्थान का स्वामी भी अथवा दोनों शय्यातर हो सकते हैं। जैसे किसी मुनि ने एक वसति में रात्रि विश्राम किया है और दूसरे दिन रात्रिक प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाएँ अन्यत्र जाकर करते हैं तो मूल वसति (जहाँ रात्रि भर विश्राम किया है) का मालिक शय्यातर नहीं माना जाता है, बल्कि जहाँ प्रतिक्रमण किया है उसका मालिक शय्यातर कहलाता है।
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जो मुनि किसी एक वसति (स्थान) में रात्रि विश्राम करता है और दूसरे स्थान में जाकर प्राभातिक प्रतिक्रमण करता है तो दोनों स्थानों के स्वामी शय्यातर होते हैं। यह स्थिति सार्थवाह आदि के साथ विहार करते समय चोर आदि के भय के कारण उपस्थित होती है, अन्यथा भजना है। जैसे- बस्ती संकीर्ण होने से मुनियों को अलग-अलग रहना पड़े, तो कुछ साधु दूसरे आवास में जाकर रात्रि व्यतीत करते हैं और दूसरे दिन सूत्र पौरुषी वहीं सम्पन्न कर मूल बस्ती में आते हैं तब दोनों गृहस्वामी शय्यातर कहलाते हैं।