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280... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
उपलक्षण से चश्मा, पेंसिल छीलने का साधन, पेन आदि तथा पढ़ने के लिए पुस्तक या फर्नीचर की सामग्री आदि भी शय्यातर पिंड नहीं कहलाती है। उक्त नौ प्रकार की वस्तुएँ शय्यातर के यहाँ से ग्रहण की जा सकती है इसलिए इन्हें अपिण्ड रूप कहा है। इनमें से कुछ वस्तुएं अल्पमूल्यवाली एवं कुछ बिना प्रयास के सहज में प्राप्त होने से शय्यातर के यहाँ उनकी प्रतिदिन भी याचना की जा सकती है इससे अप्रीति, शंका आदि दोषों की सम्भावनाएँ नहीं रहती हैं। अतः मुनि के लिए ये ग्राह्य हैं।
शय्यातर की अवधि कब तक ?
निशीथसूत्र में पूर्व सन्दर्भित चर्चा करते हुए कहा गया है कि 1. यदि किसी गृहस्थ के मकान में एक रात्रि का काल भी व्यतीत नहीं किया हो, केवल दिन में कुछ समय रहे हो तो उस मकान को छोड़ने के बाद वह घर शय्यातर नहीं रहता है।
2. यदि एक या अनेक रात्रि रहने के बाद मकान छोड़ा हो तो छोड़ने के आठ प्रहर (24 घंटे) बाद तक वसति दाता शय्यातर कहलाता है। इस अवधि में उसके यहाँ से आहारादि नहीं लेना चाहिए।
3. एक मंडल में बैठकर आहार करने वाले श्रमण यदि अनेक मकानों में ठहरे हुये हों तो उन सभी मकानों के मालिक शय्यातर कहलाते हैं। अत: उन सभी के सम्बन्ध में भी पूर्वोक्त विधि-नियम ध्यान में रखने चाहिए।
4. यदि कोई श्रमण स्वयं का लाया हुआ आहार करने वाले हों तो भी वे अपने शय्यातर और आचार्य के शय्यातर दोनों को अपना शय्यातर समझें ।
सारांशतः किसी भी वसति (स्थान) में आहारादि कर लेने के पश्चात ही उसका मालिक शय्यातर कहलाता है अथवा आहारादि न करने पर भी रात्रि विश्राम या आवश्यक (प्रतिक्रमण) क्रिया की हो तो वसति का मालिक शय्यातर कहलाता है। उस वसति को छोड़ने के चौबीस घंटे पश्चात वसति दाता अशय्यातर बनता है। यदि किसी मकान में विश्रामार्थ अल्प समय बिताया हो तो वह वसति दाता शय्यातर नहीं कहलाता है । 11 शय्यातर पिंड ग्रहण के अपवाद
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अभिमत से कुछ स्थितियों में शय्यातर पिंड ग्रहण कर सकते हैं। यह आपवादिक नियम है । इस अपवाद का सेवन कर्ता मुनि प्रायश्चित्त का भागी नहीं बनता है। वे आपवादिक स्थितियाँ निम्न हैं