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270...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन भी परेशानी पैदा हो सकती है। एक मुनि द्वारा बरती गई असावधानी का दुष्परिणाम अन्य मुनियों को भुगतना पड़ता है। इससे असजग मुनि अन्तराय आदि कर्मों का बन्ध भी कर लेता है। इसकी वजह से संस्तारक न देने वाला गृहस्थ भी मोहनीय आदि कर्म बांध लेता है, अत: साधु-साध्वी गृहीत पाट आदि का विवेकपूर्वक उपयोग करें। संस्तारक ग्रहण के प्रयोजन
संस्तारक ग्रहण का प्रयोजन क्या हो सकता है? इस तथ्य पर यदि मनन किया जाए तो मूलागमों के अनुसार उसके निम्न उद्देश्य दृष्टिगत होते हैं15
वर्षावास के दिनों में गवेषणापूर्वक संस्तारक ग्रहण करना उत्सर्ग मार्ग है, क्योंकि इस समय जमीन गीली या नमी युक्त रहती है। ऐसी भूमि पर शयन करने से उपधि अधिक मलिन हो सकती है, उस उपधि को ओढ़कर गोचरी आदि जाने पर वर्षा आ जाये तो अप्काय की विराधना होती है अथवा उपधि अधिक मलिन हो तो उसमें जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। मलिनता के कारण उपधि नमी और सुंओं से भी युक्त हो जाती है, निद्रा भी ठीक से नहीं आती है। अनिद्रा से अजीर्ण और अजीर्ण से रोगोत्पत्ति की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। अतएव इन दोषों के निराकरणार्थ गीली या नमी भूमि होने पर पाट, घास आदि अवश्य ग्रहण करने चाहिए। पुनर्विवेच्य है कि नमी युक्त भूमि वर्षाकाल में विशेष रूप से रहती है। अत: उन दिनों में संस्तारक ग्रहण करने का अनिवार्यत: विधान किया गया है।
संस्तारक ग्रहण के कुछ अन्य कारण भी निर्दिष्ट हैं1. जहाँ उपधि या शरीर बिगड़ने की अधिक संभावना हो। 2. जहाँ चीटियाँ, कुंथुवे आदि जीवों की विराधना होती हो। 3. जहाँ कानखजूरा, चूहे, बिच्छू, सर्प आदि की अधिक संभावना हो।
4. यदि शारीरिक समस्या के कारण भूमि पर बैठने-सोने में मुश्किल हो रही हो तो उन स्थितियों में पाट-घास आदि अवश्य ग्रहण करने चाहिये, अन्यथा जीव हिंसा, संयम हानि एवं आत्मविराधना हो सकती है।
व्यवहारभाष्य में तृण संस्तारक एवं फलक (पाट) ग्रहण करने के निम्न कारण बताये गए हैं-16
कदाचित मुनि उपद्रव आदि कारणों से ऐसे प्रदेश या स्थान में चला जाये, जहाँ वर्षा ऋतु में नमी (सीलन) की प्रचुरता हो, सीलन युक्त भूमि के कारण