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संस्तारक ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम...271 उपधि मलिन होने की संभावना हो, अजीर्ण का भय रहता हो, वहाँ तृण संस्तारक अवश्य ग्रहण करना चाहिये। यदि किसी प्रदेश की भूमि कीचड़, कुंथु आदि प्राणियों से संसक्त हो, हरितकाय आदि से युक्त हों तो वहाँ भी फलकसंस्तारक ग्रहण करना चाहिये।
कोई मनि अनशन स्वीकार करने के लिए उद्यत हो तब सामान्यत: वस्त्र का संस्तारक (संथारा) करना चाहिये, जिससे कोमलता के कारण उसे समाधि मिल सके। यदि संस्तारक के लिए वस्त्र का उपयोग न करें तो छेद, संधि एवं बीजों से रहित तथा एक मुखी कुश आदि तृणों का उपयोग करना चाहिये।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पाट या तृण आदि के संस्तारक का उपयोग चारित्र रक्षा, जीव यतना एवं दैहिक स्वस्थता के उद्देश्य से किया जाता है। उपसंहार
‘शय्या' अर्थात स्थान या वसति, “संस्तारक' अर्थात बिछाने योग्य काष्ठपट्ट, तृण आदि। निर्दोष स्थान और संस्तर की खोज करना शय्यासंस्तारक विधि कहलाती है।
शय्या और संस्तारक दोनों पृथक-पृथक शब्द हैं। दोनों के शब्दार्थ भी भिन्न-भिन्न हैं, यद्यपि दोनों में आधार-आधेय सम्बन्ध हैं। शय्या आधार है और संस्तारक आधेय है। संस्तारक-शय्या के आश्रित ही रहता है। इसीलिए आगम पाठों में प्राय: संस्तारक के साथ 'शय्या' शब्द का प्रयोग किया गया है।
यह जैन श्रमण-श्रमणियों का वैकल्पिक आचार है। संयमलक्षी एवं आत्मलक्षी साधकों की दृष्टि से इसका मूल्य पूर्वकाल से आज तक यथावत है। ___ जब हम इस सन्दर्भ में जैन इतिहास का अध्ययन करते हैं तो यह वर्णन जैनागमों में प्रथम अंग आगम आचारांगसूत्र में मिलता है। इसके अनन्तर यह उल्लेख बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि सूत्रों में देखा जाता है। तत्पश्चात यह विवरण पूर्वोक्त आगमों की टीकाओं में सुविस्तृत रूप से प्राप्त होता है। इस तरह आगमों एवं व्याख्या ग्रन्थों के अतिरिक्त इस विषयक विवेचन इससे परवर्ती ग्रन्थों में लगभग नहीं है। इसी का दुष्परिणाम कह सकते हैं कि आज इस आचार विधि के स्वरूप में कई परिवर्तन आ चुके हैं।
आधुनिक दृष्टि से देखा जाए तो ‘शय्या-संस्तारक' की गवेषणा कब, किस विधिपूर्वक की जानी चाहिये, इस विषय के ज्ञाता मुनि नहींवत है।