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________________ 266...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन उसके बाद ज्ञानादि सम्पदा को प्राप्त करने के लिए जो साधु अन्य गण से आया हुआ है उसके बिछौने के लिए स्थान दें। तत्पश्चात रुग्ण साधु, अल्प उपधि वाला साधु, उद्यमशील साधु, रातभर वस्त्र न ओढ़ने का अभिग्रह लिया हुआ साधु, स्थविर, गणी, गणधर, गणावच्छेदक, फिर अन्य साधुजन इस प्रकार संथारा करने हेतु अनुक्रम से स्थान ग्रहण करें। ___यहाँ यह भी बताया गया है कि नवदीक्षित या अल्प आयु वाले साधु को रत्नाधिक (चारित्र पर्याय में ज्येष्ठ) साधु के समीप सोने का स्थान देना चाहिए, जो रात में उसकी सार-सम्भाल कर सके। इसी प्रकार वैयावृत्य करने वाले साधु को ग्लान साधु के समीप स्थान देना चाहिए, जिससे वह रोगी साधु की यथासमय परिचर्या कर सके। इसी तरह शास्त्राभ्यासी नव दीक्षित साधु को उपाध्याय आदि के समीप स्थान देना चाहिए जिससे कि वह जागरणकाल में अपने कंठस्थ सूत्रों का पुनरावर्तन आदि करते समय उनसे सहयोग प्राप्त कर सके। यदि उक्त बिन्दुओं पर गहराई से मनन किया जाए तो पाते हैं कि जैन धर्म पूर्णतः विनयमूलक धर्म है। इस परम्परा में पूज्यजनों को सर्वोच्च स्थानीय माना है। उनमें भी ज्ञानाभ्यासी, अतिथि, रोगी, अभिग्रहधारी आदि मुनियों को संथारा क्रम में विशिष्ट महत्त्व दिया गया है। मूलत: चारित्र पर्याय की न्यूनाधिकता की अपेक्षा उत्क्रम-व्युत्क्रम से संथारा बिछाने का प्रावधान है। लौकिक व्यवहार में भी बड़े-छोटे के क्रम से बैठना एक आदर्श संस्कृति का द्योतक माना जाता है। संस्तारक ग्रहण की आपवादिक विधि सामान्यतया किसी भी स्थान पर बैठना या ठहरना हो तो भिक्षु को पहले आज्ञा लेनी चाहिए, उसके पश्चात वहाँ ठहरना चाहिए। इसी तरह पाट आदि अथवा तृण आदि अन्य कोई भी पदार्थ लेने हों तो पहले गृहस्थ से अनुमति लेनी चाहिए, फिर उसका उपयोग करना चाहिए। मालिक की आज्ञा लेने से पूर्व किसी भी वस्तु को ग्रहण करना अथवा उसके बाद आज्ञा लेना अविधि है। इससे तृतीय महाव्रत दृषित होता है। कदाचित मकान की दुर्लभता हो और स्थान का स्वामी वहाँ न हो तो परिस्थितिवश अविधि से ग्रहण करने की आपवादिक छूट दी गई है तथापि यह ध्यान रखना जरूरी है कि आपवादिक स्थिति का निर्णय गीतार्थ (बहुश्रुत) भिक्षु ही कर सकते हैं अगीतार्थ भिक्षु को इसका अधिकार नहीं है, किन्तु गीतार्थ की
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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