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संस्तारक ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम...267 निश्रा में वे इस अपवाद का आचरण कर सकते हैं।
संस्तारक ग्रहण करने की आपवादिक विधि के सम्बन्ध में बताया गया है कि 'जहाँ वसति मुश्किल से मिलती हो उस गाँव में कुछ साधु आगे जाएं और किसी उपयुक्त मकान में आज्ञा लिए बिना ही ठहर जाएं, जिससे मकान का मालिक रुष्ट होकर वाद-विवाद करने लगे। तब पीछे से अन्य साधु या आचार्य पहुँचकर उस साधु को आक्रोशपूर्वक कहें कि 'हे आर्यों! एक ओर तो तुमने इनकी वसति ग्रहण की है, दूसरी ओर इनको कठोर वचन बोल रहे हो। मकान मालिक के साथ इस प्रकार का दोहरा अपराधमय व्यवहार करना उचित नहीं है। चुप रहो, शान्त रहो।' इस प्रकार मकान मालिक को प्रसन्न करें और नम्रता से वार्तालाप करके आज्ञा प्राप्त करें।10 यह संस्तारक ग्रहण की अपवाद विधि है। उत्सर्ग मार्ग में पहले अनुमति लेकर फिर वसति में प्रवेश करते हैं। ___यदि हम अपवाद विधि का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं तो इस विधि द्वारा वसति प्राप्त करने में मायाचार एवं असत्य के पोषण का साक्षात दोष लगता है। फिर भी वसति के द्वारा संयम आराधना की विशेष संभावनाएं हों तो अल्प पाप
और बहु निर्जरा का सिद्धान्त घटित होने से वह दोष-दोष नहीं रह जाता है। संस्तारक सम्बन्धी कतिपय निर्देश
जैन साहित्य में संस्तारक के प्रकार, प्रयोजन आदि के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा गया है। मुनि धर्म में किसी तरह का दोष न लगे, इस उद्देश्य से संस्तारक गृहीता द्वारा पुनः पुनः आज्ञा लेने का विधान किया गया है। शास्त्रों में बार-बार अनुमति लेने के निम्न हेत बताये गये हैं
जिस क्षेत्र में साधु ने आषाढ़ महीने में कुछ दिन रहने के लिए मकान या पाट आदि ग्रहण किया हो और कारणवश उसे उसी क्षेत्र में चातुर्मास के निमित्त रहना पड़े तो चातुर्मास के लिए उनकी पुनः आज्ञा प्राप्त करनी चाहिए या उन्हें मालिक को लौटा देना चाहिये। यदि निश्चित अवधि के लिए अनुमति प्राप्त पाट आदि का अधिक समय तक उपयोग किया जाये और संवत्सरी तक भी उसकी पुनआज्ञा प्राप्त न की जाये या उन्हें न लौटाये तो लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
इसी तरह चातुर्मास के लिए शय्या-संस्तारक ग्रहण किये हों और चातुर्मास के बाद किसी शारीरिक कारण से विहार न हो सके तो दस दिन के अन्दर उन