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संस्तारक ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम...265
संस्तारक गवेषणा का काल
संस्तारक की गवेषणा (खोज) कब, कितने दिन तक, किस प्रकार की जानी चाहिये, इस सम्बन्ध में जैनागमों में स्पष्ट उल्लेख हैं। __व्यवहारसूत्र के अनुसार हेमन्त-ग्रीष्म काल में आवश्यक पाट, चौकी आदि की गवेषणा तीन दिन तक उसी गांव आदि में करें, वर्षाकाल में संस्तारक की गवेषणा तीन दिन तक उसी गांव आदि में या अन्य निकट के गांव आदि में भी की जा सकती है और स्थविरवास के लिए पाट आदि की खोज उत्कृष्ट पाँच दिन तक उसी गांव आदि में या दूर के गांव आदि में भी की जा सकती है।' संस्तारक ग्रहण का विधान वैकल्पिक भी?
जिन धर्म में वर्षावासी श्रमण-श्रमणियों के लिए संस्तारक की प्राप्ति करना अनिवार्य माना गया है, क्योंकि वर्षा ऋतु में जीव-जन्तुओं की अत्यधिक उत्पत्ति होती हैं। अत: सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों की विराधना से बचने हेतु संस्तारक का उपयोग जरूरी है, जबकि ऋतुबद्धकाल में यह नियम वैकल्पिक है। यदि कोई श्रमण वृद्ध, रुग्ण या निर्बल हो तो मोटे आसन, पाट, फलक, चौकी आदि की गवेषणा करे, अन्यथा निर्दोष भूमि पर शयन आदि करे। इस तरह संस्तारक ग्रहण का नियम सापेक्ष है। व्यवहारभाष्य का अवलोकन करने से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि भाष्यकार ने शेषकाल में पाट आदि का निष्प्रयोजन ग्रहण करने पर उसमें प्रायश्चित्त बतलाया है और वर्षाकाल में ग्रहण नहीं करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त का भागी कहा है। इस सापेक्ष नियम का उद्देश्य जीव रक्षा एवं शारीरिक समाधि ही मुख्य है। अत: इन निर्देशों को ध्यान में रखते हुए पाट आदि ग्रहण करना चाहिए। संस्तारक (बिछौना) ग्रहण किस क्रम से करें? ____ आगम विधि के अनुसार साधु-साध्वी को बड़े-छोटे के क्रम से शय्यासंस्तारक यानी स्थान एवं बिछौना ग्रहण करना चाहिए। यहाँ संस्तारक ग्रहण से तात्पर्य अनुज्ञापित वसति स्थान पर बिछौना करना है। यह बिछौना चारित्र पर्याय के क्रम से करना चाहिए। इससे संघीय व्यवस्था एवं अनुशासन का सम्यक अनुपालन होता है।
आगमिक व्याख्या साहित्य में इस विषयक स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तक- इन तीन गुरुजनों का क्रमश: संस्तारक करें।