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अध्याय-10 संस्तारक ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम
जैन मुनि अल्प परिग्रही होते हैं। स्वावलम्बी जीवन यापन करते हुए अपनी समस्त उपधि आदि सामग्री स्वयं लेकर चलते हैं। कई ऐसी वस्तुएँ होती हैं जो मुनि के लिए सदा उपयोगी नहीं बनती एवं जिन्हें अपने पास रखना भी संभव नहीं होता। ऐसी वस्तुएँ मुनि आवश्यकता अनुसार गृहस्थ वर्ग से मांगकर उपयोग करते हैं एवं उन्हें वापस समय मर्यादा में लौटा देते हैं। आचार्य आदि वरिष्ठ मुनियों के बैठने एवं सोने योग्य ऊँचा आसन, पाट आदि की गवेषणा एवं गृहस्थ वर्ग से उसकी याचना करना मुनि का मुख्य आचार है। इसमें अनेकविध रहस्य समाहित है। संस्तारक का अर्थ विचार ___जो उपकरण मुनि के लिए सोने-बैठने आदि में उपयोगी होते हैं, उन्हें संस्तारक कहा जाता है। इस दृष्टि से पट्टा, चौकी, फलक (लकड़ी का पटिया), दर्भादिक का बिछौना आदि संस्तारक कहलाते हैं।
जैन दर्शन में शय्या और संस्तारक ऐसे दो समानार्थक शब्दों का प्रयोग है। बृहत्कल्प की टीका के अनुसार जिस पर शयन किया जाता है वह शय्या, वसति है और वही संस्तारक है।' शय्या में जो शयन योग्य स्थान है वह शय्या संस्तारक कहलाता है। स्पष्ट है कि सोने या बैठने योग्य भूमि शय्या है और उस भूमि पर लेटने या बैठने हेतु जो बिछाया जाता है, वह संस्तारक है। संस्तारक के प्रकार
संस्तारक दो प्रकार के होते हैं-1. परिशाटी-तण आदि का संस्तारक और 2. अपरिशाटी-फलक आदि का संस्तारक। संस्तारक के अन्य दो प्रकार निम्न हैं
निर्हारिम-जो संस्तारक एक-दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित किया जा सके, वह निर्हारिम कहलाता है।