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संस्तारक ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम...263 अनिर्हारिम-जो संस्तारक एक-दूसरे स्थान पर लाया-ले जाया नहीं जा सके, वह अनि रिम कहलाता है। शय्या कल्पिक के प्रकार
संस्तारक स्थान (रहने योग्य स्थान) की रक्षा करने वाले एवं संस्तारक स्थान की गवेषणा करने वाले मुनि दो प्रकार के कहे गये हैं____ 1. रक्षण कल्पिक-जो बाल और ग्लान न हो, अप्रमत्त हो, गीतार्थ, धृतिमान, वीर्यसम्पन्न और समर्थ हों, ऐसे मुनि संस्तारक स्थान की रक्षा कर सकते हैं।
2. ग्रहण कल्पिक-जो वसति ग्रहण की योग्यता रखता हो, वह मनि ग्रहण कल्पिक कहा जाता है। व्यवहारभाष्य के मतानुसार जिसने शय्याकल्प को सम्यक रूप से पढ़ लिया है, जो उत्सर्ग-अपवाद मार्ग को जानता है, वह ग्रहण कल्पिक है। ___ अभिप्राय यह है कि संस्तारक की याचना करने वाले मुनि, याचना द्वारा गृहीत संस्तारक का रक्षण करने वाले मुनि एवं संस्तारक स्थान का संरक्षण करने वाले मुनि विशिष्ट गुणों से युक्त होने चाहिए। गुण युक्त मुनि ही निर्दोष संस्तारक की गवेषणा कर सकते हैं। इससे यह भी फलित होता है कि जैन धर्म की आचार संहिता में स्थान या संस्तारक जैसी सामान्य वस्तुएं ग्रहण करने का अधिकार सभी मुनियों को नहीं है। शय्या-संस्तारक का परिमाण
शय्या और संस्तारक ये दोनों शब्द समानार्थक भी हैं और भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक भी हैं। इनके परिमाण के आधार पर इनकी भिन्नता बतायी गई है। ... निशीथ भाष्यकार ने परिमाण की चर्चा करते हुए बताया है कि शय्या शरीर परिमाण होती है तथा संस्तारक ढाई हाथ लम्बा और एक हाथ चार अंगुल चौड़ा होता है।
शय्या (पृथ्वी शिला या काष्ठ फलक) अचल होती है, जबकि दर्भादि का संस्तारक सचल होता है। इस तरह शय्या-संस्तारक में भेद होता है। शय्या-संस्तारक की ग्रहण विधि
आचारचूला के अनुसार काष्ठ पट्ट, चौकी, दर्भ आदि के संस्तारक की याचना करते समय साधु-साध्वी को यह विवेक रखना आवश्यक है कि