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वसति (आवास) सम्बन्धी विधि-नियम...257
अभिनव समस्याओं के सन्दर्भ में यदि वसति नियम का परिशीलन किया जाए तो इसके द्वारा आज पारिवारिक संस्कारों में होते हास को नियन्त्रित किया जा सकता है, क्योंकि आस-पड़ोस का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है। परम्परागत आचार से विरुद्ध या विपरीत आचार वाली वसतियों में रहने से मन में कई शंकाएँ उत्पन्न होती हैं, जिससे व्यक्ति सदमार्ग से पतित हो जाता है। पड़ोसी उग्र स्वभावी हो तो रोज-रोज के कलह से मानसिक शान्ति भंग होती है एवं शारीरिक अस्वस्थता का कारण बनती है। जिस वसति में रहते हैं उस वसति के प्रभाव को न्यून तो नहीं किया जा सकता पर अच्छी वसति में रहकर अपने संस्कारों को और अधिक मजबूत किया जा सकता है। वसति प्रवेश एवं बहिर्गमन विधि
आगम विधि के अनुसार साधु-साध्वी जब भी अनुज्ञापित वसति में प्रवेश करें तब 'निसीहि' और उससे बहिर्गमन करे तब ‘आवस्सही' शब्द का तीन-तीन बार उच्चारण करें। यह औधिक सामाचारी का नियम है।
सामान्यतया जिस स्थान का जो मालिक हो, मुनि उससे अनुमति लेकर ही योग्य स्थान पर रुकते हैं किन्तु प्रत्येक क्षेत्र के पृथक-पृथक अधिष्ठित देवता भी होते हैं। वे अदृश्य रूप से अपने-अपने स्थान की सुरक्षा करते हैं। दिगम्बर परम्परानुसार अधिष्ठित देवों की अनुमति प्राप्त करने हेतु 'निसीहि' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस शब्द के माध्यम से उन्हें विज्ञप्ति दी जाती है ताकि उनका अनादर न हो। साथ ही पर्वत, गुफा, अटवी आदि कुछ स्थान ऐसे हैं जिनका स्वामी व्यक्ति विशेष नहीं होता। वहाँ भी 'निसीहि' शब्द के उच्चारण द्वारा अधिष्ठित क्षेत्र देवता की अनुमति ली जाती है, ऐसा दिगम्बराचार्यों का अभिमत है।26
- श्वेताम्बर के अनुसार देवताधिष्ठित क्षेत्र की अनुज्ञा के लिए 'अणुजाणह जस्सावग्गहो' शब्द का प्रयोग किया जाता है। निसीहि शब्द का अर्थ पाप प्रवृत्ति से निवृत्त होना है। श्वेताम्बर आचार्यों ने निसीहि का यही अर्थ ग्रहण किया है। उनके अभिप्राय से वसति प्रवेश के समय 'निसीहि' शब्द के उच्चारण का यह आशय है कि अब मैं स्थण्डिल गमनादि एवं शारीरिक (भिक्षाचर्या आदि) समस्त बाह्य व्यापार का त्याग करता हूँ, केवल आत्म व्यापार में संलग्न रहँगा। गृहस्थ श्रावकों के लिए भी यह नियम है कि वे जिनालय या उपाश्रय में प्रवेश