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258...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन करते समय तीन बार 'निसीहि' एवं बाहर निकलते समय तीन बार ‘आवस्सही' शब्द उच्चरित करें।
यहाँ 'निसीहि' शब्द का अभिप्राय अनुमति ग्रहण न होकर पाप क्रियाओं से निवृत्त होना ही है। दिगम्बर मत में 'निसीहि' का अनुज्ञापन अर्थ किस अपेक्षा से किया गया है, विद्वानों के लिए गवेषणीय है। आवस्सही का शाब्दिक अर्थ है आवश्यक कार्य के लिए बाहर जा रहा हूँ। श्वेताम्बर मत में भी 'आवस्सही' शब्द का यही अर्थ ग्रहण किया गया है। दिगम्बर मत में इसके स्थान पर 'आसिका' शब्द का उच्चारण करते हैं। उनके अभिप्रायानुसार तद्स्थानीय अधिष्ठाता देव अथवा गृहस्वामी से निर्गमन की अनुमति एवं गृहीत स्थान को सुपूर्द करने के उद्देश्य से इस शब्द का प्रयोग किया जाता है।27
अहिंसा महाव्रत के दृष्टिकोण से मनि वसति में प्रवेश करते समय एवं वसति से बहिर्गमन करते समय रजोहरण या पिच्छिका द्वारा शरीर का प्रमार्जन करें, क्योंकि वसति उष्ण या शीत हो तो बहिर्भूमि में विद्यमान उष्णकाय और शीतकाय जीवों को प्रतिकूल वातावरण से बाधा न हो। यदि शरीर का प्रमार्जन न करें तो लोकव्याप्त उष्ण-शीतकाय के परमाणु देह के साथ सम्पृक्त होने से तद्जातीय जीवों के लिए शस्त्ररूप बनते हैं, अन्यथा वे शरीर से मुक्त हो जाते हैं।
भगवती आराधना के अनुसार जो स्थान श्वेत, रक्त या कृष्ण गुण प्रधान हों और वहाँ से अन्य स्थान या नगरादि में प्रवेश कर रहे हों, तब कटिभाग से नीचे के अंग का प्रमार्जन करें। इस नियम का अनुपालन न करने पर विरुद्ध योनि के संक्रम से पृथ्वीकायिक जीवों और तद्स्थान में उत्पन्न हुए त्रसजीवों को कष्ट पहुँचता है।28 उपसंहार ___जो वसति गृहस्थ ने स्वयं के लिए तैयार की है वह मुनि के आवास हेतु पूर्ण शुद्ध एवं ग्राह्य है। यदि हम शुद्धाशद्ध वसति के सम्बन्ध में ऐतिहासिक अध्ययन करें तो अवगत होता है कि आचारांगसूत्र में इसका विशद वर्णन है। यहाँ वसति के प्रकार, शुद्ध वसति का स्वरूप, वसति दूषित कब, दूषित वसति के दोष आदि का शास्त्रीय वर्णन किया गया है।
तदनन्तर ओघनियुक्ति, बृहत्कल्प भाष्य29, पंचवस्तुक, प्रवचनसारोद्धार