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256... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
मूलगुण विशुद्धि और उत्तरगुण विशुद्धि, मूलगुण अशुद्धि और उत्तरगुण अशुद्धि ।
गृहस्थ अपने लिए जो भवन या स्थान बनवाता है, उसमें उसकी आज्ञा लेकर ठहरना मूलगुण शुद्धि है। गृहस्थ साधु के निमित्त से जो निर्माण करवाता है, उसमें ठहरना मूलगुण अशुद्धि है।
गृहस्थ अपने लिए जिस मकान या स्थान की मरम्मत और संस्कार करवाता है, उसमें उसकी आज्ञा से ठहरना उत्तरगुण शुद्धि है। गृहस्थ साधु के निमित्त से जिस मकान या स्थान की मरम्मत करवाता है, उसमें ठहरना उत्तरगुण अशुद्धि है।
साधु-साध्वी को मूलगुण शुद्ध एवं उत्तरगुण शुद्ध स्थान में ठहरना चाहिए। निषिद्ध वसति में किन दोषों की सम्भावनाएँ
जो वसति मुनि आवास के लिए निषिद्ध बतलायी गयी है, उस प्रतिषिद्ध वसति में रहने से 1. ब्रह्मचर्य का खण्डन होता है 2. पारस्परिक लज्जा का नाश होता है 3. स्त्रियों को बार-बार आसक्ति पूर्वक देखने से प्रेम बढ़ता है 4. मुनि लोक-निन्द्य के पात्र बनते हैं और 5. ' चारित्र भ्रष्टता के समीप जाने से बंध होता है' ऐसा सोचकर कई लोग धर्म से च्युत हो जाते हैं इस तरह की परम्परा से तीर्थ विच्छेद की भी संभावना बनती है। अतः जैन मुनि को निषिद्ध वसति में कदापि नहीं ठहरना चाहिए | 25
आधुनिक सन्दर्भों में शुद्ध वसति की प्रासंगिकता
साधु के रहने का स्थान कैसा हो तथा उसमें साधु कैसे रहें इसका निर्देश सम्यक रूप से जैनागमों में प्राप्त होता है। यदि वसति नियम का प्रबंधन के परिप्रेक्ष्य में चिन्तन किया जाए तो इसके द्वारा सर्वप्रथम तो मुनि जिस लघुता एवं सूक्ष्मता से वसति की याचना एवं गवेषणा करता है उससे जीवन में सरलता एवं परिपक्वता का विकास होता है। मुनि के लिए जितनी प्रकार की वसतियों को छोड़ने का निर्देश है उनके त्याग से जीवन में समय, संयम एवं शक्ति तीनों का संरक्षण होता है, जिससे स्वाध्याय, ध्यान आदि में वृद्धि होती है। शुद्ध वसति में रहने पर संयम भाव में वृद्धि होती है। स्त्री, नपुंसक, बालक आदि का संसर्ग त्यागने से मन शान्त एवं निराकुल रहता है इससे तनाव आदि से मुक्ति मिलती है।