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________________ वसति (आवास) सम्बन्धी विधि-नियम...255 3. उत्कम्बन-छत को बाँधने के लिए बांस की खपचियों को बाँधना। 4. छादन-छत को घास-कुशादि से आच्छादित करना। 5. लेपन-गोबर आदि से भीत आदि लीपना। 6. द्वार-एक दिशा से हटाकर दूसरी दिशा में द्वार बनवाना। 7. भूमि-विषम भूमि को समतल बनाना। जिस वसति में पूर्वोक्त सात प्रकार का परिकर्म (संस्कार) साधु के लिये नहीं किया गया हो वह वसति मूलोत्तर शुद्ध गुण वाली कहलाती है। इसमें साधु को रहना कल्पता है। उत्तरोत्तरगुण वाली वसति आठ प्रकार की कही गई है-24 1. दूमिता-भीत को चिकना बनाने के लिए प्लास्तर आदि किया गया हो अथवा खड़ी, चूने आदि से पुताई करवाकर सफेद किया गया हो। 2. धूपिता-वसति की दुर्गन्ध मिटाने के लिए अगरु आदि का धूप किया गया हो। 3. वासिता-वसति को पुष्पादि से महकाया गया हो। 4. उद्योतिता-वसति को रत्नादि के द्वारा या दीपक आदि जलाकर प्रकाशित किया गया हो। 5. बलिकृता-जिसमें चावल आदि के द्वारा बलिकर्म किया गया हो। 6. अवत्ता-जिसमें गोबर, मिट्टी आदि से आंगन लीपा गया हो। 7. सिक्ता-जिसमें पानी छींटा गया हो। 8. सम्मृष्टा-झाड़ आदि के द्वारा कचरा साफ किया गया हो। यदि पूर्वोक्त आठ प्रकार का परिकर्म संस्कार साधु के निमित्त न किया गया हो तो वह वसति उत्तरोत्तर शुद्ध गुणवाली कहलाती है। ऐसी वसति में जैन मुनि को रहना कल्पता है। जिस वसति में सात मूलगुण और सात मूलोत्तरगुण साधु के निमित्त किये गये हों, वह अविशोधि कोटि की कहलाती है। ऐसी वसति में साधु को नहीं ठहरना चाहिए। अविशुद्ध या स्त्री, नपुंसक आदि से संसक्त वसति में रहने पर संयम-विराधना आदि अनेक दोष लगते हैं। स्पष्ट है कि स्थान की विशुद्धि और अशुद्धि दो-दो प्रकार की होती है
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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