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254... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
को ध्यान में रखते हुए जैन भिक्षु को पूर्वोक्त सार्वजनिक स्थानों पर नहीं ठहरना चाहिए। यदि ऐसे स्थानों पर रुकना भी पड़े तो इस प्रकार का विवेक रखें कि वह स्वयं अधिक न रुके और अन्यों को किसी प्रकार की असुविधा न हो। वसति के प्रकार
आगमकार कहते हैं कि शुद्ध आहार की प्राप्ति होना उतना कठिन नहीं है जितना कि शुद्ध स्थान की प्राप्ति होना । निर्दोष स्थान की छान-बीन करना बहुत ही मुश्किल है। कदाचित प्रासुक स्थान मिल भी जाये, किन्तु साधुओं के दैनन्दिन की आवश्यक क्रियाओं में उपयोगी वसति मिल पाना कठिनतर है।
अर्हत वाणी कहती है कि वसति अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल, किन्तु वह मूलगुण शुद्ध (प्रासुक), उत्तरगुण शुद्ध (उंछ) और मूलोत्तर गुण शुद्ध (एषणीय) अवश्य होनी चाहिए। 20
और
इस प्रसंग में आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि जो वसति मूलगुण उत्तरगुण से परिशुद्ध हो एवं स्त्री- पशु-पंडकादि से रहित हो वह मुनि के लिए सर्वथा ग्राह्य होती है। साधु को सदैव उक्त गुणवाली वसति में ही रहना चाहिए। मूलत: वसति दो प्रकार की निर्दिष्ट है - 1. मूलगुण वाली और 2. उत्तरगुण वाली।21
मूलगुण वाली वसति - जिस वसति में पृष्ठिवंश अर्थात छत पर तिरछा पटड़ा डाला हुआ हो, दो थंभे जिन पर पटड़े के अन्तिम छोर टिकाये जाते हों और चार बांस की बल्लियाँ, जो दो थंभे के दोनों ओर एक-एक घर के चारों कोनों में रखी जाती हों। इस प्रकार 1 + 2 + 4 = 7 गुण से युक्त वसति मूलगुण वाली कहलाती है। उक्त सात वस्तुएँ मकान के लिए आधारभूत होने के कारण उस भवन को मूलगुण से युक्त माना जाता है। यदि गृहस्थ ने ऐसी वसति स्वयं के लिए बनवाई हो तो वह वसति मूलगुण विशुद्ध कहलाती है। यदि मुनियों के लिए बनाई गई हो तो आधाकर्म दोष से दूषित होने के कारण शुद्ध नहीं कहलाती है, अत: ऐसी अशुद्ध वसति में साधु को रहना नहीं कल्पता है। 22 उत्तरगुण-उत्तरगुण दो प्रकार के होते हैं - 1. मूलोत्तरगुण 2. उत्तरोत्तरगुण। मूलोत्तरगुण वाली वसति सात प्रकार की कही गई है - 23
1. वंशक - भीत के ऊपर छत बनाने के लिए बांस आदि डालना। 2. कटन - मकान को ढकने के लिए बांस की लकड़ी पर चटाई आदि
डालना।