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248...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन है। आचारांगसूत्र के अनुसार जीव-जन्तु युक्त स्थान का अर्थ है घास या चावल के पलाल से निर्मित स्थान। कीड़ीनगर, लीलन-फूलन, मकड़ी के जाले या दीमक से युक्त स्थान आदि हो तो साधु-साध्वी को वहाँ नहीं ठहरना चाहिए।10
हानि-जीव-जन्तु युक्त स्थान में रहने से उन जीवों की विराधना होने की सम्भावना अधिक रहती है। गाँवों में प्राय: झोपड़ियों में रहने का प्रसंग बनता है। वहाँ अण्डे, जीव-जन्तु आदि के होने की पूर्ण सम्भावना रहती है। अतएव अहिंसक साधु को उपाश्रय ढूँढ़ते समय यह भलीभाँति देख लेना चाहिए कि तृणपुंज या पलालपुंज में या आस-पास दीवारों में या भूमि में कहीं जीव-जन्तु तो नहीं हैं।
समाहारत: मुनियों के लिए निर्मित, क्रीत या अन्य तरीके से प्राप्त स्थानों में उन्हें रहने का निषेध है। जहाँ इर्द-गिर्द का वातावरण वासनायुक्त हो और चरित्रहीन लोग रहते हों वह स्थान भी साधु-साध्वी के लिए निषिद्ध माना गया है। उत्सर्गत: तो गाँव या नगर के बीच रहने का भी निषेध किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार साधु-साध्वी के लिए श्मशान भूमि, शून्यगृह, वृक्षमूल एवं परकृत स्थान कल्प्य एवं निर्दोष माने गये हैं।11 मुनियों के लिए निषिद्ध अन्य स्थान
जैन ग्रन्थों में साधु-साध्वी के लिए निम्न आठ स्थान भी बाधक बतलाये गये हैं-12
1. ससागारिक स्थान-जिस स्थान या मकान में गृहस्थ अपने परिवार के साथ रहता हो अथवा जिस स्थान में सचित्त पानी और आग का उपयोग होता हो।
हानि-सागारिक स्थान में रहने पर ब्रह्मचर्य खण्डित होने की विशेष संभावना रहती है, क्योंकि गृहस्थ के परिवार में कई महिलाएं होती हैं जिनके रूप, यौवन या लावण्य से साधु का मन विचलित हो सकता है। गृहस्थ के मन में साधु के ब्रह्मचर्य पालन के प्रति संशय हो सकता है और उसका ब्रह्मचर्य भी खण्डित हो सकता है। गृहस्थ के घर का वैभव या भौतिक वातावरण देखकर गृहस्थाश्रम की स्मृतियाँ जागृत हो सकती हैं, जिसके कारण उसका मन चंचल
और अशान्त बन सकता है। पारिवारिक वातावरण के बीच मन स्वाध्यायादि में स्थिर नहीं बनता। गृहस्थ या साधु को एक दूसरे के प्रति संकोच से आवागमन