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________________ वसति (आवास) सम्बन्धी विधि - नियम... 247 से निर्दोष आहार का अभ्यासी नहीं रह पायेगा, गृहस्थ साधु के निमित्त कुछ भी अलग से तैयार करके लेने का आग्रह करेगा तो वह टाल नहीं पायेगा । इस तरह सदोष आहार में आसक्त होता हुआ वहीं रहने की इच्छा भी करने लग सकता है। वस्तुतः संयम और त्याग का मार्ग बड़ा कठिन है और भोग अनादिकालीन संस्कारों के कारण जीव को लुभावने प्रतीत होते हैं । अतएव उनकी ओर व्यक्ति की प्रवृत्ति सरलता से हो जाती है जबकि त्याग की ओर बढ़ने में प्रबल पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती है। इस प्रकार गृहस्थ के संसर्ग के कारण साधु संयम के नियमोपनियमों के पालन में शिथिल हो जाता है। • शारीरिक बाधा से निवृत्त होने के लिए रात्रि में या असमय में गृहस्थ के घर का मुख्य द्वार खोलकर बाहर निकले और उधर अवसर पाकर कोई चोर घर में घुसकर चोरी कर जाए त गृहस्थ को साधु के चोर होने की शंका हो सकती है। अतः उपर्युक्त दोषों की संभावनाओं को जानकर एवं संयम धर्म का संरक्षण करने हेतु मुनि को गृहस्थ के संसर्ग वाली वसति में नहीं रुकना चाहिए। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो गृहस्थ संसक्त सम्बन्धी स्थानों का वर्जन करना दुर्भर होता जा रहा है। धीरे-धीरे यह विवेक भी विलुप्त होता जा रहा है कि मुनियों के दर्शनार्थ कब और कितनी बार जाना चाहिए? आस-पास के लोग समय बिताने के हिसाब से कभी भी उपाश्रय में चले आते हैं। आजकल शहरी इलाकों में दूरस्थ रहने वाले गृहस्थों की भावनाओं को ख्याल में रखते हुए उनके घरों में एक या दो दिन रुकने का रिवाज भी शुरू हो गया है। कोलकाता, मुम्बई जैसे शहरों में तो चातुर्मास के पश्चात महीना - दो महीना गृहस्थों के आग्रहों को झेलने में ही पूरे हो जाते हैं। कारणवश किसी एक के यहाँ चले जायें और दूसरे को इन्कार कर दें तो यह लोक निन्दा का कारण बन जाता है। इस सम्बन्ध में गृहस्थ वर्ग को मुनि धर्म की सामाचारियों से परिचित करवाना चाहिये, जिससे संयम विरुद्ध प्रवृत्ति पर नियन्त्रण हो सके। 7. सचित्त स्थान का वर्जन श्रमण को स्वयं के रुकने के लिए उस प्रकार के स्थान की गवेषणा करनी चाहिए जो जीव-जन्तुओं से युक्त न हो। साधु को निर्जीव स्थान में रहना कल्प्य
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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