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अध्याय-9
वसति (आवास) सम्बन्धी विधि - नियम
जिस प्रकार जीवन निर्वाह हेतु आहार आवश्यक है, उसी प्रकार श्रान्त शरीर को विश्राम देने के लिए एवं धार्मिक आराधना आदि के उद्देश्य से स्थान की भी आवश्यकता होती है। इस जीवन निर्वाह में वसति भी एक आवश्यक अंग है। जैसे साधु के लिए पिण्ड शुद्धि का ध्यान रखना जरूरी है, वैसे ही स्थान की विशुद्धि भी उसके लिए अनिवार्य है। अतएव वसति शोधन जैन मुनि का एक आवश्यक आचार है।
जैन मनीषियों का अनुभव कहता है कि सदाचार के सम्पर्क से सम्यग्दर्शन आदि की शुद्धि बढ़ती है तथा कुत्सित आचार वालों के सम्पर्क से सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। जैसे कमल आदि के संसर्ग से घड़े का जल सुगन्धमय और शीतल हो जाता है तथा अग्नि आदि के संयोग से उष्ण और विरस हो जाता है। इसी तरह शुद्ध एवं अशुद्ध वसति का असर भी पड़ता है। अतः उचित वसति में रहने का अत्यधिक मूल्य है। 1
यह सर्वविदित है कि जैन श्रमण किसी नियत स्थान में नहीं ठहरता और उसके आधिपत्य में कोई मठ या उसका अपना कोई स्थान नहीं होता । गृहस्थ स्वयं के लिए जो आवास आदि बनाते हैं, उनमें से ही मुनिवर्ग अपने लिए स्थान की याचना करता है। अपनी कल्प मर्यादा के अनुसार याचित स्थान पर कुछ समय रुककर वह अन्यत्र चल देता है। इसलिए साधु का कोई नियत उपाश्रय भी नहीं होता। प्राचीनकाल में साधु-साध्वी थोड़े समय के लिए गृहस्थ की आज्ञा से जहाँ रुकते थे, वह स्थान 'उपाश्रय' नाम से जाना जाता था। जब श्रमण वहाँ से विहार कर अन्यत्र चले जाते तो वह पूर्वोक्त स्थान 'उपाश्रय' नहीं कहलाता था। वर्तमान में गृहस्थजनों द्वारा निर्मित आराधना भवन, जैन भवन या पौषध शालाएँ आदि उपाश्रय या धर्मस्थानक कहे जाते हैं। इन धर्मस्थानकों में साधु-साध्वी गृहस्थों की आज्ञा प्राप्त कर कल्पानुसार ठहरते हैं । पूर्वकाल में