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पात्र ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम...229
का निर्देश है, उनमें तीसरा पात्र लघुनीति एवं बड़ी नीति (मलमूत्र) आदि के विसर्जन के उद्देश्य से रखना चाहिए।
बृहत्कल्पसूत्र में श्रमणियों के लिए घटीमात्रक (घड़ा) रखने का विधान भी है। इसी प्रकार व्यवहारसूत्र में वृद्ध साधु के लिए भाण्ड (घड़ा) और मात्रिका (लघुनीति का बरतन) रखने का प्रावधान है। इस तरह साधु को तीन पात्र और चौथा मात्रक ऐसे कुल चार पात्र रखना भी कल्पता है और साध्वियों को चार पात्र और पाँचवा मात्रक ऐसे कुल पाँच पात्र रखना कल्पता है।'
ध्यातव्य है कि आगम में तीन प्रकार के मात्रक का उल्लेख भी है1. उच्चार मात्रक 2. प्रश्रवण मात्रक और 3. खेल मात्रक। घटीमात्रक एक प्रकार का प्रश्रवणमात्रक ही है। यद्यपि प्रश्रवण मात्रक तो साधु-साध्वी दोनों को रखना कल्पता है किन्तु इस मात्रक का कुछ विशेष आकार होता है। बहुमूल्य वस्त्र-पात्रादि का निषेध क्यों? ___बहुमूल्य वस्त्र-पात्रादि रखने से अनेक प्रकार के दोषों की सम्भावना हो सकती है, जैसे 1. चुराये जाने या छीने जाने का भय 2. संग्रह करके रखने की संभावना 3. क्रय-विक्रय या अदला-बदली करने की संभावना 4. बहुमूल्य पात्रादि की प्राप्ति हेतु धनिक की प्रशंसा, चाटुकारिता आदि की संभावना 5. अच्छे पात्र पर ममता या मूर्छा और असून्दर पात्रादि के प्रति घृणा की संभावना 6. कीमती पात्रादि लेने की आदत 7. कीमती पात्रों को बनाने तथा टूटने-फूटने पर जोड़ने में अधिक आरम्भ का दोष। 8. शंख, दाँत, चर्म आदि के पात्र लेने से उनके निमित्त मारे जाने वाले जीवों की हिंसा का अनुमोदन और 9. साधर्मिकों के साथ प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या एवं दूसरों को उपभोग के लिए न देने की सम्भावना।
प्राय: कीमती चीजें महारम्भ से पैदा होती हैं, अतएव अहिंसक साधुसाध्वी को महारम्भ जन्य उपधि ग्रहण नहीं करनी चाहिए। निशीथसूत्र में इस प्रकार के पात्र बनाने, बनवाने और अनुमोदन करने वाले साधु-साध्वी के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। पात्र की गवेषणा (खोज) हेतु क्षेत्रगमन मर्यादा
आगमिक नियम यह है कि श्रमण हो या श्रमणी, वे पात्र की गवेषणा (खोज) हेतु अपनी वसति से अर्धयोजन तक जा-आ सकते हैं, इस क्षेत्र सीमा