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________________ 230... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन के बाहर से लाया गया पात्र उनके लिए निषिद्ध माना गया है। अतएव जैन मुनि को पात्र की याचना के लिए अर्धयोजन के भीतर ही गमन करना चाहिए। 1" 10 स्पष्ट है कि जिस प्रकार वस्त्र याचनार्थ उपाश्रय की सीमा से दो कोस (अर्धयोजन) उपरान्त जाने का निषेध किया गया है, वैसा ही निषेध पात्र के लिए भी समझना चाहिए। जिस प्रकार आधाकर्मिक, औद्देशिक, क्रीत, प्रामित्य आदि दोषों से दूषित आहार एवं वस्त्र लेने का निषेध किया गया है, वही नियम पात्र के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। यदि पात्र शाक्यादि श्रमणों के लिए बनाया गया हो या खरीदा गया हो या संस्कारित किया गया हो तो वह पुरुषान्तर हो जाने के पश्चात मुनि के लिए कल्पनीय हो जाता है । 11 यहाँ पात्र के गवेषणार्थ अर्धयोजन से अधिक गमन करने का जो निषेध किया गया है, उसका मुख्य कारण संग्रह वृत्ति का निरोध करना है अन्यथा लोलुपी एवं मोही साधु दूर-दूर तक इसकी गवेषणा करता रहेगा, जिससे स्वाध्याय हानि, संयम हानि और आत्म परिणामों की हानि का कारण बन सकता है। योग्य-अयोग्य पात्रों को पहचाने की रीति ? जैन ग्रन्थों में पात्र के प्रकारों का ही निर्देश नहीं है, बल्कि किस तरह का पात्र सलक्षण वाला और अलक्षणवाला, मंगलकारक और हानिकारक माना गया है ? यह भी वर्णित है। आचार्य मलयगिरि ने कहा है कि वर्तुल, समचतुरस्र, स्थिर, दीर्घकालस्थायी और स्निग्धवर्णी - इन गुणों से युक्त तथा ज्ञान आदि गुणों का वहन करने वाला पात्र सलक्षणवान होता है। विषम संस्थान वाला, निष्पत्तिकाल से पूर्व सूखने वाला, झुर्री युक्त, छिद्र तथा दरार से युक्त पात्र लक्षणहीन होता है। जैन भिक्षु के लिए लक्षणहीन पात्र अग्राह्य माना गया है। 12 लक्षणयुक्त पात्र के लाभ बताते हुए कहा गया है कि वृत्त और समचतुरस्र पात्र धारण करने पर विपुल भक्तपान आदि का लाभ होता है। स्थिर पात्र ग्रहण करने पर चारित्र, गण आदि में स्थिरता होती है । व्रणरहित पात्र से कीर्ति और आरोग्य की प्राप्ति होती है तथा स्निग्धवर्णयुक्त पात्र से ज्ञान संपदा बढ़ती है। लक्षणहीन पात्र के दोष बताते हुए कहा गया है कि विषम संस्थान वाला पात्र चारित्र का भेद करता है । विचित्र वर्ण वाला पात्र चित्त में विक्षिप्तता पैदा करता
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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