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________________ 228...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन होते हैं और न इन्हें प्राप्त करने में कोई विशेष कठिनाई होती है। अत: अल्पमूल्य और सुलभता की दृष्टि से ऐसा विधान किया गया प्रतीत होता है। एक हेतु यह भी हो सकता है कि इनके निर्माण में अधिक आरम्भ-समारम्भ नहीं होता। धातु के पात्र कीमती होते हैं तथा उनके निर्माण में भी विशेष आरम्भसमारम्भ होता है, इसलिए धातु के पात्र की आज्ञा नहीं दी गई है। एक कारण यह भी माना जा सकता है कि जैन श्रमण अपरिग्रह के मूर्तिमान आदर्श होते हैं, इसलिए उन्हें धातु की बनी हुई कोई भी वस्तु अपने पास स्थायी रूप से रखने का निषेध किया गया है। इसी के साथ धातु का विक्रय किया जा सकता है किन्तु तुम्बे मिट्टी आदि का नहीं। पात्र ग्रहण की शास्त्रीय विधि सामान्यतया वस्त्र ग्रहण के सम्बन्ध में जो विधि दर्शायी गयी है, पात्र ग्रहण के विषय में भी वही विधि जाननी चाहिए। जिस प्रकार औद्देशिक और बहुमूल्य वस्त्र लेने का निषेध है, उसी तरह औदेशिक या बहुमूल्य पात्र लेने का भी निषेध है। वस्त्र और पात्र की गवेषणा के सम्बन्ध में अधिकांश नियम समान हैं। किसके लिए कितने पात्रों का विधान? ___ सामान्यतया मुनि के लिए एक पात्र रखने का विधान है लेकिन वह अधिक से अधिक तीन पात्र रख सकता है। आचारांगसूत्र में वर्णन आता है कि साधु या साध्वी तुम्बी, काष्ठ या मिट्टी से निर्मित तीन तरह के पात्र रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त लोहा, तांबा, पीतल, कांसा, चर्म, कांच, शंख, दांत या पत्थर किसी भी प्रकार के धातु का पात्र रखना उनके लिए निषिद्ध बतलाया गया है। यदि वह निषिद्ध पात्र रखता है तो उसे चातुर्मासिक या अनुद्घातिक प्रायश्चित्त आता है। ___कौनसा साधु कितने पात्र रख सकता है? इस सम्बन्ध में आचारांग', निशीथ, बृहत्कल्प आदि सूत्रों का निर्देश है कि जो साधु तरुण, बलिष्ठ एवं स्थिर संहनन वाला हो, वह एक पात्र रखे दूसरा नहीं। ऐसा मुनि जिनकल्पिक या विशिष्ट अभिग्रह धारक भी हो सकता है। श्वेताम्बर परम्परा जिनकल्पी को पात्र की अनुज्ञा देती है। गच्छ के साथ रहने वाले साधुओं के लिए दो पात्र रखने का विधान किया गया है, उनमें एक भोजन के लिए एवं दूसरा पानी के लिए रखना चाहिए। आचार्यादि के साथ रहने वाले साधुओं के लिए तीन पात्र रखने
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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