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अध्याय-8
पात्र ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम
जब तक साधक दृढ़मनोबल पूर्वक 'करपात्री' की भूमिका पर नहीं पहुँच जाता, तब तक उसे पात्र की आवश्यकता रहती है। सामान्य रूप से साधुसाध्वियों को कैसे पात्र लेने चाहिए, कितने मूल्य के लेने चाहिए, उनकी गवेषणा और उनका उपयोग करते समय कौनसी सावधानियाँ रखनी चाहिए? यहाँ इन तथ्यों पर प्रकाश डालना आवश्यक है। नियमत: ग्रहण किए गए पात्र ऐसे होने चाहिये कि जिससे उन पर ममत्व या मूर्छा का भाव न जगे तथा उनके अन्वेषण, ग्रहण और उपयोग में उदगम आदि के दोष न लगें। पात्र के प्रकार
ओघत: पात्र के दो प्रकार हैं-द्रव्य और भाव। श्रमण को भाव पात्र कहा गया है तथा श्रमण के संयम रक्षार्थ धारण किये जाने वाले पात्र द्रव्य पात्र कहलाते हैं अथवा काष्ठादि से निर्मित पात्र द्रव्य पात्र हैं।
जैन साधु-साध्वियों के लिए निम्न तीन प्रकार के द्रव्य पात्र कल्पनीय माने गये हैं- 1. तुम्बे का पात्र 2. लकड़ी का पात्र और 3. मिट्टी का पात्र।'
इनमें से प्रत्येक पात्र 1. उत्कृष्ट 2. मध्यम एवं 3. जघन्य के भेद से तीनतीन प्रकार के होते हैं।
उत्कृष्टादि पात्र भी तीन-तीन प्रकार के कहे गए हैं- 1. यथाकृत 2. अल्पपरिकर्म युक्त और 3. सपरिकर्म युक्त। । ___ यहाँ इतना जानना जरूरी है कि पात्र के जघन्यादि जो भेद किये गये हैं, उनकी परिधि रस्सी से मापी जाती है। यदि मापने पर मापक रस्सी तीन वितस्ति तथा चार अंगुल की हो तो वह माप वाला पात्र मध्यम परिमाण का कहलाता है। इस माप से छोटा जघन्य पात्र कहा जाता है तथा उससे बड़ा उत्कृष्ट पात्र कहा जाता है।
उक्त तीनों तरह के पात्र रखने का उद्देश्य यह है कि ये न तो बहुत कीमती