________________
198...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन उत्साह, उत्तम मार्ग का अनुसरण और विवेक पूर्वक चारित्र का अभ्यास करना वस्त्र प्रतिलेखन के अन्य प्रयोजन हैं।74
मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन करते समय साधक को इस प्रकार का विचार करना चाहिए कि निर्वाण प्राप्ति का मुख्य साधन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय है, जिसकी आराधना साधु जीवन में सरलता पूर्वक होती है। मुखवस्त्रिका मुनि जीवन का एक प्रतीक है। इस प्रकार का विचार करते हुए साध्य के प्रति सावधानी प्रकट होती है।
तदनन्तर यह विचार करते हुए कि इन उपकरणों को रखने का मुख्य उद्देश्य क्रिया दशा में अप्रमत्त रहना और अहिंसा धर्म का पालन करना है। इस तरह के मनन से लक्ष्य के प्रति उत्साह बढ़ता है।
तत्पश्चात यह विचार करना चाहिए कि इस मुखवस्त्रिका को धारण करने वाले उत्तम मार्ग में अनुसरण करते हैं, मेरे द्वारा भी यह मुखवस्त्रिका धारण की गई है, अत: मैं भी उत्तम आर्य मार्ग का अनुसरण करूं। इस प्रकार के विचार से उत्तम मार्ग का अनुसरण होता है। इसके पश्चात यह विचार करना चाहिए कि जो भी क्रियानुष्ठान हैं, उन्हें विधिपूर्वक सम्पन्न करने से ही उत्तम फल प्राप्त होते हैं। एतदर्थ मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना विधिपूर्वक करने योग्य है, इस तरह का विचार करने से चारित्र का सम्यक अभ्यास होता है और संयम भावों की वृद्धि होती है। __श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में 25 बोल के साथ मुखवस्त्रिका आदि वस्त्रोपकरण की प्रतिलेखना की जाती है। इन बोलों का अर्थ अनुस्मरणीय है। इन बोलों के द्वारा उपादेय और हेय वस्तु का विवेक अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि पूर्वक इस तरह किया जाता है जैसे कि पहला बोल 'सूत्र अर्थ सांचो सद्दहूं' बोलते हुए यह प्रवचन तीर्थ रूप है, उसके अंग रूप सूत्र और अर्थ की समझ के साथ श्रद्धा करनी चाहिए।
तत्पश्चात उस श्रद्धा में अंतराय रूप 'सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय परिहरूं' इन तीन बोलों के द्वारा मोहनीय कर्म का परिहार करने की भावना की जाती है। उसके बाद मोहनीय कर्म में भी राग विशेष रूप से त्याज्य है, उसमें भी पहले कामराग, फिर स्नेहराग और फिर दृष्टिराग छोड़ने जैसा है। इस तरह तीन बोल पूर्वक राग त्याग का चिन्तन किया जाता है।