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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि- नियम... 199
तदनन्तर जब राग भाव का परिहार हो तब ही सुदेव, सुगुरु, सुधर्म की स्थापना कर सकते हैं। अत: तीन बोल पूर्वक सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की महत्ता का विचार करते हुए उन्हें आदरपूर्वक स्वीकार करने की भावना की जाती है तथा कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के प्रति रहे ममत्व भाव को दूर करने का दृढ़ संकल्प किया जाता है। जब साधक इतनी भूमिका तक पहुँच जाये, तब ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधना यथार्थ हो सकती है, अतः इस तरह की आराधना करने के लिए 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदरूं', 'ज्ञान विराधना, दर्शन विराधना, चारित्र विराधना परिहरूं' ये छह बोल कहे जाते हैं। इसी तरह 'मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति आदरूं' ये तीन बोल कहते हुए इन तीन गुप्तियों को स्वीकार किया जाता है और 'मनोदंड, वचनदंड, कायदंड परिहरूं' इन तीन बोलों का चिन्तन करते हुए इनका परिहार किया जाता है । इस प्रकार मुखवस्त्रिका प्रतिलेखित करते हुए बोलों के चिन्तन पूर्वक उपादेय और हेय तत्त्व का विचार किया जाता है।
यहाँ ध्यातव्य है कि मुखवस्त्रिका आदि सभी प्रकार के वस्त्रों की प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को स्वयं की ओर लाते हुए नौ बार ग्रहण करने की क्रिया की जाती है तथा वस्त्र को कोहनी से नीचे की ओर ले जाते हु नौ बार खंखेरने की क्रिया की जाती है और एक बार दृष्टि द्वारा सम्पूर्ण वस्त्र का प्रतिलेखन किया जाता है। यहाँ शास्त्रीय भाषा में ग्रहण करने की क्रिया को आस्फोटन (अक्खोडा) और खंखेरने की क्रिया को प्रस्फोटन ( पक्खोडा) कहा गया है। वस्त्र प्रतिलेखन की मूल विधि आस्फोटन और प्रस्फोटन के द्वारा ही सम्पन्न होती है। इस प्रक्रिया के पीछे गंभीर आशय हैं।
उदाहरणार्थ जो तत्त्व साधना मार्ग में आगे बढ़ने के लिए अनुकरणीय एवं आचरणीय हैं, उन्हें उपादेय बुद्धि से स्वीकार करने हेतु नौ बार ग्रहण करने की क्रिया की जाती है। वस्त्र प्रतिलेखना के 25 बोलों में 1. सुदेव 2. सुगुरु 3. सुधर्म 4. ज्ञान 5. दर्शन 6. चारित्र 7. मनोगुप्ति 8. वचनगुप्ति 9. कायगुप्ति आदि हैं। ये नौ तत्त्व मुख्य रूप से आचरणीय हैं। इसलिए इन नौ बोलों का चिन्तन करते हुए नौ बार ग्रहण करने की विधि की जाती है तथा जो तत्त्व साधना मार्ग को विखण्डित करने वाले हैं, उनका हेय बुद्धि से परिहार करने हेतु नौ बार खंखेरने-झाड़ने की क्रिया की जाती है। उनमें - 1. कुदेव 2. कुगुरु