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196...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन 10. प्रतिलेखना करते समय इरियावहियं आदि सूत्र प्रकट स्वर से बोलें, मन
में न बोलें। 11. प्रतिलेखन क्रिया समाप्त हो जाने के पश्चात जब तक काजा को
परिष्ठापित कर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण न कर लें तब तक आसन पर न
बैठे, न वस्त्र ओढ़े और न उस बीच किसी प्रकार का कार्य करें। 12. दो मनि एक साथ काजा न लें। 13. काजा लेते समय दंडक-मात्रक-पट्टा-संस्तारक भूमि आदि की अवश्य
प्रतिलेखना करें। 14. प्रत्येक उपकरण की प्रतिलेखना बोलपूर्वक करें। 15. प्रतिलेखना करते समय मन को एकाग्र रखें, वचन से मौन और काया से
अचपल रहें। 16. प्रचलित परम्परा के अनुसार पात्र प्रतिलेखना के बाद क्रमश: तिरपनी,
काछली (नारियल आदि की टोपसी), पात्र बाँधने का डोरा, पात्र पोंछने
का वस्त्र खण्ड (लूणा) इन चार उपकरणों की प्रतिलेखना करें। 17. प्रतिलेखित पात्र, पात्रपोंछन, वस्त्रादि को अप्रतिलेखित आसन पर न रखें। 18. आहार करने के पश्चात पात्र को झोली में बाँधकर रखें। 19. प्रतिलेखना के अनन्तर दंडासन खड़ा करके नहीं रखें तथा एक साथ दो
या दो से अधिक दंडासन भी मिलाकर नहीं टांगें। प्रतिलेखना सम्बन्धी विधि-विधानों के रहस्य
वस्त्रादि प्रतिलेखना से सम्बन्धित विधियों के रहस्य इस प्रकार हैं
शरीर प्रतिलेखन का मुख्य ध्येय? इस प्रतिलेखना का मूल हार्द शरीर सम्बन्धी 25 बोलों के द्वारा सहजतया जाना जा सकता है। शरीर प्रतिलेखना करते समय शरीर के जिन स्थानों का स्पर्श करते हए जो बोल कहे जाते हैं, उन बोलों का शरीर के उन अवयवों से सम्बन्ध होता है।
इस प्रतिलेखना के माध्यम से शरीर के विशिष्ट अंग सम्बन्धी विकारों को दूर करने का प्रयास किया जाता है। जैसे शरीर के हृदय भाग की प्रतिलेखना करते हुए 'ऋद्धि गारव, रस गारव, साता गारव मुखे परिहरूं' अर्थात मैं ऋद्धि के गर्व, रस के गर्व, सुख के गर्व का मुख स्थान से त्याग करता हूँ, ऐसा बोला जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि गर्व या अहंकार का सम्बन्ध मुख से