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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...195 साधुविधिप्रकाश में सायंकालीन प्रतिलेखना विधि के अन्तर्गत एक खमासमण द्वारा 'सज्झाय मुहपत्ती पडिलेहुँ' इस वचन पूर्वक मुखवस्त्रिका प्रतिलेखित करने का निर्देश किया गया है। यह आदेश विधि वर्तमान परम्परा में प्रचलित नहीं है।73
इस प्रकार यह देखा जाता है कि सायंकालीन प्रतिलेखना शास्त्रानुमत एवं आचार शुद्धि का परम अंग है। इस विधि में परवर्ती काल में एक क्रमिक विकास देखा जाता है। प्रतिलेखना के आवश्यक नियम
प्रतिलेखना करते समय निम्नोक्त बिन्दु ध्यान देने योग्य हैं1. प्रतिलेखना प्रारम्भ करने से पूर्व सर्वप्रथम उस स्थान की प्रमार्जना करें, फिर आसन की प्रतिलेखना कर उसे लम्बा बिछायें। फिर प्रतिलेखित
वस्त्रादि को उस आसन पर रखें। 2. उपधि की प्रतिलेखना के समय सभी उपधियों को एक साथ एकत्रित
करके रखें, फिर एक-एक वस्त्र की प्रतिलेखना करें। 3. प्रतिलेखित वस्त्रादि को अप्रतिलेखित वस्त्रादि के साथ न रखें। 4. वस्त्र की प्रतिलेखना के समय यह विवेक रखें कि वस्त्र भूमि को स्पर्श
न करे और स्वयं के शरीर से भी स्पर्श न करे। इस कारण उत्कटासन में (तलवे और एड़ियों के बल) बैठकर अधर में प्रतिलेखना करें। 5. प्रतिलेखना प्रारम्भ करने के पश्चात पूर्ण न हो तब तक कहीं भी इधर
उधर न जायें, यदि अपरिहार्य स्थिति में जाना पड़े तो स्थान, शरीर आदि
के प्रमार्जन का पूरा ध्यान रखें। 6. प्रतिलेखना के बीच तीन कदम से अधिक कहीं जाने की स्थिति बने तो
दंडासन द्वारा भूमि को प्रमार्जित करते हुए जायें। 7. प्रतिलेखन योग्य समस्त उपकरणों को उठाते हुए या रखते हुए दृष्टि
प्रतिलेखन और रजोहरणादि द्वारा प्रमार्जन अवश्य करें। 8. प्रतिलेखन सम्बन्धी प्रत्येक आदेश ‘इच्छाकरेण संदिसह भगवन्' इतना
उच्चस्वर में बोलकर लें। 9. गुरु का आदेश प्राप्त होने पर 'इच्छं' शब्द कहें।