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194...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
तुलना
सन्ध्याकालीन प्रतिलेखन विधि का सुव्यवस्थित स्वरूप यतिदिनचर्या एवं साधुविधिप्रकाश इन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वर्तमान परम्परा में इसमें उल्लिखित विधि ही विशेष रूप से प्रचलित है, अत: यहाँ सायंकालीन प्रतिलेखन विधि की चर्चा इन ग्रन्थों के आधार पर की गई है।
विकास क्रम की दृष्टि से देखा जाए तो आगम साहित्य में उत्तराध्ययनसूत्र और टीका साहित्य में ओघनियुक्ति को छोड़कर अन्य ग्रन्थों में यह स्वरूप नहीं मिलता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इतना भर उल्लेख है कि चौथे प्रहर में पात्रों को प्रतिलेखनापूर्वक बाँधकर रख दें, फिर स्वाध्याय करें। यह प्रतिलेखना किस विधिपूर्वक की जाये, इस सम्बन्ध में किंचितमात्र भी नहीं कहा गया है।
ओघनियुक्ति में यह विधि कुछ स्पष्टता के साथ प्राप्त होती है, परन्तु परवर्ती एवं वर्तमान परम्परा से कुछ असमानता है। ओघनियुक्ति में उपवासी एवं भक्तार्थी दो प्रकार के साधुओं की पृथक-पृथक प्रतिलेखना विधि कही गई है। उपवासी और भक्तार्थी दोनों तरह के साधु उपधि एवं पात्रोपकरण की किस क्रम से प्रतिलेखना करें, इसकी चर्चा पूर्व में कर चुके हैं। इसी तरह का उल्लेख पंचवस्तुक में भी मिलता है। किन्तु उसमें परवर्ती ग्रन्थों की भाँति प्रतिलेखना विधि का सुविकसित निरूपण नहीं है।
यतिदिनचर्या में पाक्षिकादि पर्व दिनों की अपेक्षा सायंकालीन उपधि प्रतिलेखन के सम्बन्ध में कुछ भिन्न कहा गया है, जो क्रम सामाचारी भेद के कारण वर्तमान में प्रवर्तित नहीं है। इसमें वर्णन है कि एक खमासमण देकर सामान्य वस्तुओं की प्रतिलेखना हेतु मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करें, दूसरा खमासमण देकर उपधि के निमित्त पुन: मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करें, तीसरा खमासमण देकर उपधि का प्रतिलेखन करें और उसके बाद गुच्छा, पूंजणी, झोली, पटल, रजस्त्राण आदि उपकरणों का प्रतिलेखन करें। फिर प्रतिलेखित पात्रों को एक ओर निरूपद्रव स्थान पर रखें। फिर क्रमश: ग्लान, नवदीक्षित और स्वयं के उपधि की प्रतिलेखना करें। उसके पश्चात पाट, पट्टे, मात्रादि की कुंडी इत्यादि शेष वस्तुओं की प्रतिलेखना करें। वर्तमान में प्रतिलेखन का यह क्रम अप्रचलित है।72