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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि- नियम... 193
आचार्य हरिभद्रसूरि एवं पूर्व परम्परा के मतानुसार सायंकाल पहले वसति प्रमार्जना करनी चाहिए, फिर वस्त्र प्रतिलेखना करनी चाहिए। तदनन्तर यदि पूर्व में प्रत्याख्यान न किया हो तो जल पीकर चौविहार या पाणहार का प्रत्याख्यान करें ।
स्थंडिल प्रतिलेखना- उसके बाद एक खमासमणपूर्वक वन्दन कर, 'इच्छा. संदि. भगवन्! थंडिला पडिलेहुं' इतना कहकर स्थंडिल भूमि सम्बन्धी प्रतिलेखना करने की अनुमति प्राप्त करें। फिर उपाश्रय से सौ हाथ की भूमि तक निकट-मध्य-दूर ऐसे चौबीस स्थानों की प्रतिलेखना करें।
गोचरचर्या प्रतिक्रमण-तदनन्तर गुरु के समक्ष एक खमासमण देकर कहें- 'इच्छा. संदि. भगवन्! गोयरचरियं पडिक्कमेमो' पुनः दूसरा खमासमण देकर ‘गोयरचरिय पडिक्कमणत्थं काउस्सग्गं करेमो अन्नत्थूससिएणं' बोलकर कायोत्सर्ग में एक नमस्कार मन्त्र का चिन्तन करें। फिर कायोत्सर्ग पूर्णकर नमस्कार मन्त्र को उच्चारणपूर्वक बोलें।
पंचवस्तुक के अनुसार गीतार्थ (सुयोग्य) गच्छ में निम्न गाथा की घोषणा की जाती है
कालो गोअरचरिया, थंडिला वत्थ पत्त पडिलेहा । संभरउ सो साहू, जस्स वि जं किंचिऽणुवुत्तं ।।
अर्थ- कालग्रहण, गोचरचर्या, स्थंडिल, वस्त्र - पात्र प्रतिलेखना आदि आवश्यक क्रियाओं में अनुपयोग के कारण किसी भी साधु के लिए कुछ करना शेष रह गया हो, तो उस क्रिया को याद करें, क्योंकि दैनिक क्रियाओं को सम्पन्न करने का समय बीत रहा है अर्थात दिन का अन्तिम प्रहर पूर्ण हो रहा है।
यह सुनकर प्रत्येक साधु इस प्रकार का चिन्तन करने में प्रवृत्त हो जाये कि आज मेरे लिए कुछ करना शेष तो नहीं रह गया है? यदि चिन्तन करते हुए कुछ स्मृति में आ जाये तो उस शेष क्रिया को पूर्ण करे। वर्तमान में यह गाथा स्वाध्यायादि में एकाग्रचित्त बने हुए साधुओं को प्रतिक्रमण का समय ज्ञात करवाने के लिए एवं दैनिक आवश्यक क्रियाओं में कुछ करना शेष रह गया हो तो उसकी स्मृति करवाने के लिए जोर से बोलते हैं। 70
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में आज भी यह गाथा बोली जाती है। वस्तुतः गोचरचर्या प्रतिक्रमण दैवसिक प्रतिक्रमण के पूर्व किया जाता है। इसलिए प्रतिलेखना विधि के साथ इसका वर्णन किया गया है, परन्तु यह प्रतिलेखना का अंग नहीं है ।