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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...191 माध्यम से गुर्वाज्ञापूर्वक अंग-उपधि-वसति-पात्र आदि की प्रतिलेखना करते हैं। इसके साथ ही सूत्रपौरुषी की आचरणा रूप दशवैकालिकसूत्र के प्रथम अध्ययन की पाँच गाथा का स्वाध्याय किया जाता है। आगम विधि के अनुसार इस समय औधिक और औपग्रहिक समस्त प्रकार की उपधि प्रतिलेखना की जानी चाहिए। प्रात:काल दस उपकरण, प्रथम पौरुषी के अन्त में सात उपकरण एवं सायंकाल चौदह उपकरण प्रतिलेखित करने का विधान है।
यतिदिनचर्या एवं साधुविधिप्रकाश में उल्लेखित सायंकालीन प्रतिलेखना विधि यह है-69
सामान्य प्रतिलेखना-सर्वप्रथम एक ज्येष्ठ साधु खमासमण देकर उस समय का निवेदन करने हेतु गुरु से कहें-'इच्छा. संदि.भगवन्! बहुपडिपुन्ना पोरिसी'-दिन के तीन प्रहर पूर्ण हो चुके हैं। गुरु-'तहत्ति' कहें। यह सुनकर सभी साधु गुरु के समक्ष एकत्रित होकर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें।
फिर एक खमासमण देकर कहें-'इच्छा.संदि.भगवन्! पडिलेहन करूँ'हे भगवन्! आपकी इच्छापूर्वक अनुमति से प्रतिलेखन करता हूँ। पुनः एक खमासमण देकर कहें-'इच्छा. संदि. भगवन्! वसति प्रर्माजूं'-हे भगवन्! आपकी इच्छानुसार अनुमति प्राप्त कर वसति का प्रमार्जन करते हैं। उसके बाद उकडु आसन में बैठकर पच्चीस बोलपूर्वक मुखवस्त्रिका और पच्चीस बोलपूर्वक शरीर की प्रतिलेखना करें। ____ अंग प्रतिलेखन-तदनन्तर एक खमासमण देकर बोलें-'इच्छा. संदि. भगवन्! अंगपडिलेहणं संदिसावेमि'। पुन: दूसरा खमासमण देकर बोलें'इच्छा. संदि. भगवन्! अंगपडिलेहणं करेमि'। इतना कहने के बाद पच्चीस बोलपूर्वक मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करें। फिर क्रमश: अंगस्थ कंदोरा एवं चोलपट्ट की पूर्ववत प्रतिलेखना करें।
यहाँ ऐसा भी निर्देश है कि उपवासी साधु सभी उपधियों की प्रतिलेखना करने के बाद चोलपट्ट की प्रतिलेखना करें और भक्तार्थी साधु पहले मुखवस्त्रिका, फिर चोलपट्ट और अन्त में रजोहरण प्रतिलेखित करें। इसमें उपधि प्रतिलेखन का भी एक क्रम निर्दिष्ट है जिसे प्रभातकालीन प्रतिलेखना विधि में बताया जा चुका है।
वसति प्रमार्जन-फिर पूर्ववत दण्डासन की प्रतिलेखना कर वसति का