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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि - नियम... 189
हों। फिर एक खमासमण देकर कहें - 'इच्छा. संदि भगवन्! सज्झाय संदिसावेमि' गुरु - संदिसावेह, शिष्य- इच्छं कहें। फिर एक खमासमण देकर बोलें- 'इच्छा. संदि. भगवन्! सज्झाय करेमि गुरु-करेह, शिष्य- इच्छं कहें। उसके बाद सभी साधु दोनों घुटनों के बल बैठकर, दोनों हाथों से बनी हुई कोशाकार मुद्रा में मुखवस्त्रिका को धारण कर तथा उसे मुख के आगे स्थित करते हुए रजोहरण को घुटनों के ऊपर रखें एवं वैराग्य रंग से रंगित होकर गुरु वचन को सुनें। उस समय गुरु मन्द - मृदु स्वर से एक नमस्कार मन्त्र पढ़कर दशवैकालिकसूत्र का प्रथम अध्ययन 'धम्मो मंगल मुक्किट्ठ' की पाँच गाथा बोलें और पुनः एक नमस्कार मन्त्र बोलें।
उपयोग विधि— यह विधि भिक्षागमन से पूर्व आहार- पानी आदि को विवेकपूर्वक एवं गुर्वानुमति पूर्वक ग्रहण करने के उद्देश्य से की जाती है। प्रचलित परम्परानुसार उपयोग विधि इस प्रकार है - 64
सर्वप्रथम सभी साधु गुरु के समक्ष उपस्थित हों। फिर गुरु खमासमण देकर बोलें- 'इच्छा. संदि. भगवन्! उवओगं संदिसावेमि' इच्छं । फिर दूसरा खमासमण देकर कहें- 'इच्छा. संदि. भगवन्! उवओगं करेमि इच्छं । फिर ‘उवओगकरण निमित्तं करेमि काउस्सग्गं' इतना कह अन्नत्थसूत्र बोलकर एक नमस्कार मन्त्र का कायोत्सर्ग करें। फिर कायोत्सर्ग पूर्णकर प्रकट में एक नमस्कार मन्त्र बोलें। तदनन्तर अन्य साधुगण भी इसी तरह का आदेश मांगें और गुरु 'संदिसावेह' 'करेह' शब्द कहकर अनुमति प्रदान करें ।
तत्पश्चात एक ज्येष्ठ साधु अर्धावनत होकर बोलें- 'इच्छाकारेण संदिसह'-हे भगवन्! मुझे इच्छापूर्वक आज्ञा दीजिये (मैं उपयोग के सम्बन्ध में क्या करूँ?) तब गुरु उपयोग निमित्त 'लाभ' शब्द कहें। यहाँ 'लाभ' शब्द का प्रयोग करते हुए गुरु यह कहना चाहते हैं कि हे शिष्य ! भिक्षाटन के लिए यह समय उचित, अनुकूल एवं उपद्रव रहित होने से तुम्हें आहारादि की प्राप्ति हो । तदनन्तर पुनः अर्धावनत मुद्रा में ज्येष्ठ साधु कहें - 'कह लेसहं'. आहारादि को किस प्रकार लेना चाहिए। तब गुरु कहें- 'जह गहियं पुव्वसाहुहिं' - पूर्व गीतार्थ साधुओं के द्वारा जैसा आहारादि ग्रहण किया गया है तुम्हें वैसा ही निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए। उसके बाद शिष्य कहें- 'इच्छं आवस्सियाए जस्स य जोगो त्ति' आपकी अनुमति से आवश्यक कार्य
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