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188... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
से देखें। यदि उसमें जूं आदि सूक्ष्म जीव-जन्तु हों तो उन्हें स्वयं के वस्त्रांचल में रखें और ‘वोसिरामि’ शब्द बोलते हुए उपाश्रय से सौ हाथ दूर प्रतिलेखित भूमि पर यतनापूर्वक परठें। फिर स्थापनाचार्य के सम्मुख उपस्थित होकर साधु मण्डली के साथ एक खमासमणपूर्वक ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें।
वसति प्रवेदन– तत्पश्चात वसति प्रमार्जन करने वाला साधु एक खमासमण देकर बोलें- ‘इच्छा. संदि. भगवन्! वसति पवेडं' गुरु - 'पवेयह', शिष्य- इच्छं कहें। पुनः एक खमासमणपूर्वक वन्दन कर बोलें- 'इच्छा. संदि. भगवन्! सुद्धावसही' गुरु - 'तहत्ति' कहें। उसके बाद शिष्य बोलें- स्वामिन्! अविधि-आशातना, दृष्टि-भ्रान्ति हुई हो उसके लिए मिच्छामि दुक्कडं ।
यहाँ प्रतिलेखना विधि में इतना विशेष है कि उपधि की प्रतिलेखना करते समय क्रमशः गुरु, रत्नाधिक, लघु शिष्य और अन्त में स्वयं के उपधि की प्रतिलेखना करें।
सूत्र पौरुषी ( स्वाध्याय) विधि - मुनि चर्या के नियमानुसार प्रातः कालीन प्रतिलेखना करने के अनन्तर सूत्रपौरुषी एवं उपयोग विधि की जाती है। सूत्रपौरुषी को सज्झाय विधि भी कहते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि के मत से उपयोग विधि भिक्षागमन के लिए जाने से पूर्व की जानी चाहिए, क्योंकि यह क्रिया आहार- पानी में विवेक रखने से सम्बन्धित है। वर्तमान में सज्झाय विधि के साथ ही यह विधि सम्पन्न कर ली जाती है। जो मुनि नवकारसी हेतु भिक्षाटन करते हैं उनके लिए सज्झाय एवं उपयोग दोनों क्रियाएँ युगपद् करना उचित भी है, किन्तु जो श्रमण मध्याह्न काल में आहारार्थ जाते हैं उन्हें उस समय उपयोग विधि करनी चाहिए।
सज्झाय विधि दिन के प्रथम प्रहर में सूत्रपौरूषी का आचार स्थापित करने के उद्देश्य से की जाती है । वर्तमान सामाचारी के अनुसार प्रतिलेखना विधि एवं सज्झाय विधि करने से पूर्व दैहिक मलादि का उत्सर्ग, स्वाध्याय, प्रभु दर्शन, उपदेश, भिक्षाटन आदि कुछ भी क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए, वरना प्रायश्चित्त आता है।
प्रचलित परम्परानुसार सज्झाय की विधि निम्न है -
यदि आचार्य-उपाध्याय - वाचनाचार्य हो तो पांगरणी (ऊर्ध्वभागीय वस्त्र) ओढ़े हुए और शेष साधु हों तो मात्र चोलपट्ट पहने हुए गुरु के सम्मुख उपस्थित