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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...187 को खुल्ला करके चौकी आदि पर उनकी स्थापना करें। फिर एक खमासमण देकर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें। फिर एक खमासमण देकर-'इच्छा. संदि. भगवन्! पडिलेहणं संदिसावेमि?' इच्छं, कह, पुन: दूसरा खमासमण देकर 'पडिलेहणं करेमि?' इच्छं, कहकर मुखवस्त्रिका एवं शरीर की 25-25 बोलपूर्वक प्रतिलेखना करें। उसके पश्चात रजोहरण, डंडी, ओघारिया एवं रजोहरण डोरी की भी 25 बोलपूर्वक प्रतिलेखना करें।
अंग प्रतिलेखन-तदनन्तर दो खमासमणपूर्वक 'अंग पडिलेहणं संदिसावेमि?' इच्छं, 'अंगपडिलेहणं करेमि?' इच्छं कहकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करें। ___ यहाँ 'अंग' शब्द से शरीरस्थित चोलपट्ट आदि जानना चाहिए, ऐसा गीतार्थ मुनिजन कहते हैं। इस अर्थ के अनुसार साधु कंदोरा एवं चोलपट्ट की प्रतिलेखना करें और साध्वी कंदोरा, कंचुकी, साडा एवं चद्दर की प्रतिलेखना करें।
स्थापनाचार्य प्रतिलेखन- उसके बाद एक खमासमण देकर 'इच्छकारी भगवन्! पसाउ करी (प्रसन्न होकर) पडिलेहणा (स्थापनाचार्य एवं गुरु आदि के उपकरण) पडिलेहावोजी' (प्रतिलेखन की अनुमति दीजिये) ऐसा बोलकर स्थापनाचार्य की तेरह बोल से प्रतिलेखना करें।
___ उपधि प्रतिलेखन- तत्पश्चात सभी साधु एक खमासमण देकर कहें'इच्छा. संदि. भगवन्! ओहि मुहपत्ती पडिलेहुँ?' गुरु - 'पडिलेहेह'। शिष्यगण- इच्छं कह मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करें। फिर शिष्य एक खमासमण देकर कहें-'इच्छा. संदि. भगवन्! ओहीपडिलेहणं संदिसावेमि' गुरु'संदिसावेह'। शिष्य- इच्छं कहें। पुनः दूसरा खमासमण देकर बोलें-'इच्छा. संदि. भगवन्! ओही पडिलेहणं करेमि' गुरु-करेह, शिष्य-इच्छं कहकर उकडु आसन में कंबली, वस्त्रद्वय, उत्तरपट्ट एवं संस्तारक की प्रतिलेखना करें। कुछ परम्पराओं में पहले संस्तारक, फिर उत्तरपट्ट इस क्रम से प्रतिलेखना करते हैं। फिर भूमि का प्रमार्जन करते हुए डंडे के स्थान पर जाकर उसकी प्रतिलेखना करें। वर्षाऋतु हो तो पट्टादि-काष्ठासन की भी प्रतिलेखना करें।
वसति प्रमार्जन- दण्डासन की प्रतिलेखना के पश्चात वसति (उपाश्रय) की प्रमार्जना करें। फिर उकडु आसन में बैठकर एकत्रित कचरे को सम्यक प्रकार